Wednesday 16 November 2016

कैसी हो कृष्ण भक्ति..श्रीउड़िया स्वामीजी महाराज

श्रीकृष्‍ण-भक्‍त के लक्षण

पूज्‍यपाद महात्‍मा श्री उडिया स्‍वामीजी महाराज
अन्‍य समस्‍त कार्य छोड़कर जो सर्वदा एकमात्र भगवान का ही अवलम्‍बन करता है, एकमात्र भगवान की ही सेवा-पूजा में तन-मन निरन्‍तर नियुक्‍त रहता हे, वह भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जो भगवान में समस्‍त लोक और समस्‍त लोंकों में भगवान का दर्शन करता हे, जो सर्वत्र समानबुद्धि रखता है और सर्वभूतों में प्रेम रखता हे, वह भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जिसको अपने और पराये का भेद नहीं है, जिसको इच्‍छा, द्वेष और अभिमान नहीं है तथा जो सर्वदा-पवित्र एवं भगवन् में दत्त-चित्त है वह भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जिसका मन सम्‍पति-विपत्ति में भगवान को छोड़कर अन्‍यत्र कहीं नहीं जाता, जो सर्वदा सत्‍यवादी एवं सदाचार-परायण है, वही भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जो प्रपंच-विमुख है, विचारयुक्‍त है, एकान्‍तसेवी है तथा भगवत्‍परायण है, वही भक्‍त नमस्‍कार- योग्‍य है।
जो भगवान के सर्वत्र दर्शन करता है, जिसको संसार से अभय प्राप्‍त है, जो अन्‍य प्राणियों को अभय प्रदान करता है, जो संसार से उदासीन है तथा जो आश्रम-धर्म में कुशल है, वही भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जिसको प्रेम का ही अवलम्‍बन है, जिसने मत-मतान्‍तर को उल्‍लघंन किया है और जिसका हृदय प्रेममय है, वही भक्‍त नमस्‍कार- योग्‍य है।
जो सर्वदा चातक की नाई एकनिष्‍ठ है, सर्वदा लक्ष्‍मण नाई स्‍वतन्‍त्र से रहित है, सर्वदा द्वन्द्वों अर्थात शीतोष्‍ण और रागद्वेष से परे है एवं सन्‍तुष्टिचित्त है, वही भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जो भगवान के अतिरिक्‍त और किसी को नहीं जानता और न किसी को चाहता है, जिसका मन स्थिर है और जो संयमी है, वही भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जो भगवान को इसी शरीर से प्राप्‍त कर लेता है, जिसका भगवान के चिन्‍तन में ही समय व्‍यतीत होता है, वही भक्‍त नमस्‍कार-योग्‍य है।
जिसने भगवान को, जो कि एकमात्र सत्‍य वस्‍तु है, आत्‍म–समर्पण किया है, वही नमस्‍कार-योग्‍य है।
ऐसे भक्‍तराज के दर्शन, प्रणाम और सेवा करने वाले का जीवन धन्‍य है। ऐसे भक्‍त की कृपा से प्रेम की बृद्धि और कामना से रहितता होती है। भक्‍त का हृदय ही भगवान का विलास-स्‍थान है। भक्‍त के हृदय से भगवान का स्‍वरूप और भगवान की महिमा प्रकाशित होती है। हे पुरुषों ! ऐसे भक्‍त को त्‍यागकर और किसका संग करना चाहिये ?
भक्‍त सम्‍पत्ति, सिद्धि अथवा कैवल्‍यमुक्ति नहीं चाहता; वह सर्वस्‍व त्‍याग देता है और सम्‍पूर्ण रूप से भगवान में विलीन होता है। अर्थात आत्‍म-विसर्जन करता है। भगवान में आत्‍मा की आहुति प्रदान करना सर्वश्रेष्‍ठ यज्ञ है, यही परम पुरुषार्थ है। जो जिस पदार्थ को चाहता है, वह उसको प्राप्‍त करता है। जो कुछ भी नहीं चाहता यह श्रीभगवान को प्राप्‍त करता है। भक्‍त का धन केवल श्रीकृष्‍ण के चरणकमल हैं और वह केवल भगवान की कृपा से ही प्राप्‍त होता है।



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