श्री
राधे--
(भक्ति की आवश्यक्ता)
" आप सब जानते है की मिश्री मीठी होती है लेकिन पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति की रसना को मीठी मिश्री भी कडवी लगती है --उसी प्रकार संसारिक मोह मे पुरी तरह फंसे व्यक्ति के सामने भक्ति की बाते की जाए तो लोग उठकर चले जाते है,,उन्हे भक्ति की बाते अच्छी नही लगती-- यही अज्ञानता ही व्यक्ति की अशांति का कारण है-- हमारे गौडीय आचार्यो ने उदाहरण देकर कहा की जिस तरह पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति की रसना को मिश्री भी कडवी लगती है उसी प्रकार जो जन्मो जन्मो से संसार के भोगो मे मन को लगाए हुए है उनको आनंदस्वरुप परमात्मा की बाते अच्छी नही लगती--- वास्तव मे देखा जाए तो मिश्री तो मीठी ही होती है लेकिन जिसको पित्तरोग हो जाए उसे मिश्री कडवी लगती है-- उसी प्रकार भगवान आनंदस्वरुप है --लेकिन जिन्होने अपने मन को संसारिक भोगो मे लगा रखा है उनका जीवन अशांति रुपि पित्तरोग से ग्रसित रहता है ओर उनको आनंदस्वरुप भगवान की बाते अच्छी नही लगती--भगवान से विमुख होकर जीव कभी सुखी नही रह सकता-- क्योकि परमात्मा खुद आनंद स्वरुप है-- भगवान का एक नाम रस भी है--" रसौ वै स:"-- ओर संसार को दुखालयं कहा जाता है ईसलिए हम जिस आनंद को चाहते है वो हमे तब मिलेगा जब हम दुखालयं रुपि संसार से मन हटाकर आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगा देंगे-- ध्यान रखो की मन को संसार से हटाना है-- क्योकि मन ही भक्ति करेगा --मन ही बंधन ओर मोक्ष का कारण है ईसलिए मन पर विशेष ध्यान देना है-- जहर को अगर अमृत समझकर पीओगे तो जीवन बर्बाद होगा उसी प्रकार दुखालयं रुपि संसार को आनंद स्वरुप मानकर संसार मे मन लगाओगे तो जीवन दुखी अशांत रहेगा--
" कोई तन दूखी तो कोई मन दूखी तो कोई धन बिन रहत उदास--थोडे थोडे सब दूखी ,सुखी राम का दास"--राम का दास सुखी क्यो रहता है??? क्योकि दास का मन आनंदस्वरुप भगवान मे लग जाता है ईसलिए भगवान के भक्त हमेशा आनंद मे रहते है-- प्यास तो पानी पीने से ही बुझती है उसी प्रकार हम जिस आनंद को चाहते है वो हमे तब मिलेगा जब हम आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगाएंगे-- मिठाई लेने अगर नाई की दूकान पर जाओगे तो मिठाई नही मिलेगी-- मिठाई तो मिठाई की दूकान पर ही मिलेगी-- जिस जगह मिठाई नही है उस जगह मिठाई ढूंढने से समय ही बर्बाद होगा उसी प्रकार ये संसार दुखालयं है --ईसमे आनंद खोजोगे तो आनंद नही मिलेगा -- आनंदस्वरुप तो भगवान है ईसलिए आनंद भी भगवान की भक्ति से ही मिलेगा--" श्रुति पुराण सब ग्रंथ कहाहिं ,रघुपति भक्ति बिना सुख नाहि"--भक्ति अर्थात् सेवा --ओर सेवा अर्थात् स्वामी की आज्ञा मानना -- ओर भगवान ने गीता मे आज्ञा दी है की " मन्मना भव"-- भगवान कहते है की अनन्यभाव से मन मुझमे लगाओ-- यानि हमारा मन केवल भगवान मे ही लगा रहे--" येन केन प्रकारेण मन: कृष्ण निवेशयेत्"- मन का केवल भगवान मे लगना ही भक्ति है-- संसार मे मन लेकर जाने से तो अशांति चिंता ही मिलेगी ओर आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगाने पर आनंद,शांति मिलेगी--पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति अगर बार बार मिश्री का सेवन करता है तो उसका पित्तरोग दुर हो जाता है ओर उसे मिश्री मीठी लगने लगती है-- उसी प्रकार शुरुआत मे मन भगवान मे ना लगे तो अभ्यासयोग से बार बार मन को कथारस पिलाओ ओर प्रभु नाम का आश्रय लो --धीरे धीरे मन स्वयं भगवान मे लगने लगेगा--बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-- सद्गुरुदेव भगवान की जय
(भक्ति की आवश्यक्ता)
" आप सब जानते है की मिश्री मीठी होती है लेकिन पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति की रसना को मीठी मिश्री भी कडवी लगती है --उसी प्रकार संसारिक मोह मे पुरी तरह फंसे व्यक्ति के सामने भक्ति की बाते की जाए तो लोग उठकर चले जाते है,,उन्हे भक्ति की बाते अच्छी नही लगती-- यही अज्ञानता ही व्यक्ति की अशांति का कारण है-- हमारे गौडीय आचार्यो ने उदाहरण देकर कहा की जिस तरह पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति की रसना को मिश्री भी कडवी लगती है उसी प्रकार जो जन्मो जन्मो से संसार के भोगो मे मन को लगाए हुए है उनको आनंदस्वरुप परमात्मा की बाते अच्छी नही लगती--- वास्तव मे देखा जाए तो मिश्री तो मीठी ही होती है लेकिन जिसको पित्तरोग हो जाए उसे मिश्री कडवी लगती है-- उसी प्रकार भगवान आनंदस्वरुप है --लेकिन जिन्होने अपने मन को संसारिक भोगो मे लगा रखा है उनका जीवन अशांति रुपि पित्तरोग से ग्रसित रहता है ओर उनको आनंदस्वरुप भगवान की बाते अच्छी नही लगती--भगवान से विमुख होकर जीव कभी सुखी नही रह सकता-- क्योकि परमात्मा खुद आनंद स्वरुप है-- भगवान का एक नाम रस भी है--" रसौ वै स:"-- ओर संसार को दुखालयं कहा जाता है ईसलिए हम जिस आनंद को चाहते है वो हमे तब मिलेगा जब हम दुखालयं रुपि संसार से मन हटाकर आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगा देंगे-- ध्यान रखो की मन को संसार से हटाना है-- क्योकि मन ही भक्ति करेगा --मन ही बंधन ओर मोक्ष का कारण है ईसलिए मन पर विशेष ध्यान देना है-- जहर को अगर अमृत समझकर पीओगे तो जीवन बर्बाद होगा उसी प्रकार दुखालयं रुपि संसार को आनंद स्वरुप मानकर संसार मे मन लगाओगे तो जीवन दुखी अशांत रहेगा--
" कोई तन दूखी तो कोई मन दूखी तो कोई धन बिन रहत उदास--थोडे थोडे सब दूखी ,सुखी राम का दास"--राम का दास सुखी क्यो रहता है??? क्योकि दास का मन आनंदस्वरुप भगवान मे लग जाता है ईसलिए भगवान के भक्त हमेशा आनंद मे रहते है-- प्यास तो पानी पीने से ही बुझती है उसी प्रकार हम जिस आनंद को चाहते है वो हमे तब मिलेगा जब हम आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगाएंगे-- मिठाई लेने अगर नाई की दूकान पर जाओगे तो मिठाई नही मिलेगी-- मिठाई तो मिठाई की दूकान पर ही मिलेगी-- जिस जगह मिठाई नही है उस जगह मिठाई ढूंढने से समय ही बर्बाद होगा उसी प्रकार ये संसार दुखालयं है --ईसमे आनंद खोजोगे तो आनंद नही मिलेगा -- आनंदस्वरुप तो भगवान है ईसलिए आनंद भी भगवान की भक्ति से ही मिलेगा--" श्रुति पुराण सब ग्रंथ कहाहिं ,रघुपति भक्ति बिना सुख नाहि"--भक्ति अर्थात् सेवा --ओर सेवा अर्थात् स्वामी की आज्ञा मानना -- ओर भगवान ने गीता मे आज्ञा दी है की " मन्मना भव"-- भगवान कहते है की अनन्यभाव से मन मुझमे लगाओ-- यानि हमारा मन केवल भगवान मे ही लगा रहे--" येन केन प्रकारेण मन: कृष्ण निवेशयेत्"- मन का केवल भगवान मे लगना ही भक्ति है-- संसार मे मन लेकर जाने से तो अशांति चिंता ही मिलेगी ओर आनंदस्वरुप भगवान मे मन लगाने पर आनंद,शांति मिलेगी--पित्तरोग से ग्रसित व्यक्ति अगर बार बार मिश्री का सेवन करता है तो उसका पित्तरोग दुर हो जाता है ओर उसे मिश्री मीठी लगने लगती है-- उसी प्रकार शुरुआत मे मन भगवान मे ना लगे तो अभ्यासयोग से बार बार मन को कथारस पिलाओ ओर प्रभु नाम का आश्रय लो --धीरे धीरे मन स्वयं भगवान मे लगने लगेगा--बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-- सद्गुरुदेव भगवान की जय
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