Saturday 24 December 2016

जानिए हम कौन?? हमारा कौन?? हम क्या चाहते है?? ओर उसे प्राप्त करने का क्या उपाय है??

राधे राधे --
चार बातो के विषय मे हमारे वैष्णव आचार्यो ने अपनी टीकाओ मे बहुत विस्तार किया है--
हम कौन?? हमारा कौन?? हम क्या चाहते है?? ओर उसे प्राप्त करने का क्या उपाय है?? महाप्रभु जी भी अपनी वाणी मे कहते है की --
" वेद शास्त्र कहे संबंध अभिधेय प्रयोजन--
कृष्ण कृष्णभक्ति प्रेम तिन महाधन"-- आज ईन चार बातो पर चर्चा करते है--पहला विषय है की हम कौन??--अनादि काल से जीव एक भूल कर बैठा है-- स्वयं को देह मानना ही सबसे बडी भुल है-- ओर जब स्वयं को देह माना तो देह के रिश्तेदारो को अपना मान लिया-- बस यही जीव की सबसे बडी भूल है जिसकी वजह से जीव अनादि काल से अशांत ओर दूखी है-- जीव जहर को अमृत समझकर पीता जा रहा है ओर अशांत होता जा रहा है--
कृष्ण भुलि सेई जीव अनादि बहिर्मुख--
अतऐव माया तारे देय संसार दूख-- महाप्रभु जी कहते है की अनादि काल से जीव कृष्ण से विमुख है ओर जीव अपना मन संसार मे लगाने के कारण दुखी है क्योकि माया के क्षेत्र मे दुख ही दुख है -- ईसलिए "माया तारे देय संसार दूख" तो पहला विषय यही है की जीव सबसे पहले खुद को पहचाने की वो शरीर नही है--हम जो ये दिनभर मै-मै- मै- शब्द का उच्चारण करते है यही जीव है जिसे आत्मा भी कहते है-- जैसे गाडी ओर ड्राईवर होता है उसी प्रकार हम गाडी यानि हम शरीर नही बल्कि हम शरीर मे रहने वाले जीव है- ईसलिए सबसे पहले हमने स्वयं को जाना की हम शरीर नही है-- अब दूसरा विषय प्रारंभ करते है --हमारा कौन?? देखो मनुष्य जब स्वयं को देह मान लेता है तो देह के रिश्तो मे अपनापन करता है --लेकिन हम देह नही है तो हम जिसके अंश है वही तो हमारा है-- अब प्रश्न उठता है की हम किसके अंश है?? ईसका उत्तर भगवान गीता 15 अध्याय मे देते है की "ममैवांशे जीवलोके"- भगवान कहते है की जीव मेरा अंश है यानि हम सब भगवान के अंश है यानि केवल प्रभु ही हमारे है-- ईसलिए अपनापन भी केवल भगवान मे रखना है- प्रभु तो कहते है की जीव मेरा अंश है लेकिन जीव प्रभु से ये नही कहता की प्रभु तु मेरा है--भगवान बस यही देखते रहते है की जीव मुझे कब अपना मानेगा-- ओर विश्वास मानना की जिस दिन आप केवल प्रभु को अपना मान लोगे ,प्रभु से संबंध जोड लोगे तो जीवन उसी दिन से बदल जायेगा-- पुज्य गुरुदेव भजन मे गाया करते है की " श्याम प्यारे से जिसका संबंध है,,उसको हर घडी आनंद ही आनंद है"-- जहर को जहर नही मानोगे तो उससे बच नही पाओगे उसी प्रकार भगवान ही मेरे है ,जब तक ये भाव नही आयेगा तब तक जीवन संसारिक अशांति मे व्यर्थ जाता रहेगा--" दिव्यो देवो एको नारायणो माता पिता भ्राता"-- भगवान ही जीव के माता ,पिता ,भ्राता सब कुछ है-
क्योकि जीव भगवान का अंश है-- ईसलिए केवल भगवान को ही संबंधी मानकर भगवान मे मन लगाना है ओर संसारिक रिश्तो के प्रति केवल कर्तव्य निभाना है-- मन संसारिक रिश्तो मे आसक्त नही करना है-- मन केवल प्रभु मे आसक्त रहे-- गोपियो का मन केवल प्रभु मे रहता था-- ओर भगवान को भी वही भक्त पसंद है जिसका मन बुद्धि भगवान मे लगा रहे-- गीता के 12 अध्याय मे प्रभु कहते है की " मय्यर्पितमनोबुद्धिर्­यो मद्भक्त: स मे प्रिय:'-- अर्थात् जिसका मन ओर बुद्धि मुझमे अर्पित है वही भक्त मुझको प्रिय है-- अब तीसरा विषय प्रारंभ करते है की हम सब क्या चाहते है?? सब जीवन मे केवल रस चाहते है --सब आनंद चाहते है--सब शांति ,उत्साह चाहते है --लोग सोचते है की धन पाकर आनंद मिल जाएगा ,शांति मिल जाएगी लेकिन धन पाकर भी मनुष्य अशांत रहता है ,चिंता मे रहता है-- लोग सोचते है की संसार की बडी उपलब्धि मिल जाए तो आनंद मिल जाएगा लेकिन उपलब्धि मिलने पर भी जीव परेशान रहने लगता है ,सीट खोने का डर बना रहता है यानि कहने का भाव केवल ईतना है की संसार का सब कुछ प्राप्त करने पर भी मनुष्य के जीवन मे उत्साह की जगह निराशा ,अशांति ,चिंता, जडता आती जा रही है-- ईसका क्या कारण है??? ईसका एकमात्र कारण केवल ईतना है की जिस जगह शांति ,आनंद ,है उस जगह जीव ने मन नही लगाया-- जड संसार को मन मे भरने के कारण जीवन भी जड यानि अशांत बन गया-- लेकिन जब आनंदस्वरुप भगवान को मन मे भर लोगे तो जीवन मे आनंद आयेगा--- क्योकि भगवान ही तो आनंदस्वरुप है -- बिजली की तारो मे अगर कहीं कट लग जाए तो तारो मे धारा नही बहती -- अगर तारो से धारा का प्रवाह करना है तो जहां भी कट लगा है उसे जोड दो तब धारा बहने लगेगी उसी प्रकार भगवान से जीव अनादि काल से विमुख है ईसलिए मनुष्य के जीवन मे उत्साह की ,आनंद की धारा नही बह पा रही-- अगर आनंद की धारा जीवन मे प्रवाहित करनी है तो अपना संबंध आनंदस्वरुप परमात्मा से जोड लो -- ओर चतुर्थ विषय यह है की हम जिस आनंद को चाहते है वो कैसे मिलेगा?? ईसका उत्तर पहले ही लिखा जा चुका है की भगवान रसरुप है ,आनंदस्वरुप है ईसलिए हमे आनंद भी केवल भगवान से मिलेगा-- "रघुपति भक्ति बिना सुख नाहि"--
अनन्यभाव से मन केवल भगवान मे ही लगाकर रखना है-- मन अगर संसारिक क्षेत्र मे गया तो संसार की गंदगी से मन गंदा हो जाएग ओर प्रभु उस गंदे मन मे नही आयेंगे-- "निर्मल मन जन सो मोहि पावा--मोहि कपट छल छिद्र न भावा"" ईसलिए अनन्यभाव से निष्काम होकर कृष्ण भक्ति यानि मन भगवान के नाम ,रुप,गुण -लीला कथा मे लगाकर रसपान करना है-- तभी जीवन मे आनंद आयेगा ,शांति आयेगी --सेब का रस लेना है तो सेब को खाना पडेगा उसी प्रकार जीवन मे आनंद पाना है तो शास्त्रो द्वारा बताये गये मार्ग पर चलना ही पडेगा-- बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय- सद्गुरुदेव भगवान की जय-- जय जय श्री राधे


जय-- जय जय श्री राधे

No comments:

Post a Comment