मार्गदर्शक चिंतन-शरद
पूर्णिमा वह पावन दिवस जब
भगवान श्रीकृष्ण ने वृन्दावन
में असंख्य गोपिकाओं के साथ
"महारास"
रचाया
था। शास्त्रों में कहा गया
कि "रसो
वै स:"
अर्थात
परमात्मा रसस्वरूप है अथवा
जो रस तत्व है,
वही
परमात्मा है।
श्रीकृष्ण द्वारा उसी आनंद रूप रस का गोपिकाओं के मध्य वितरण ही तो "रास" है। यानि एक ऐसा महोत्सव जिसमें स्वयं ब्रह्म द्वारा जीव को अपने ब्रह्म रस में डुबकी लगाने का अवसर प्रदान किया जाता है। जीवन के अन्य सभी सांसारिक रसों का त्याग कर जीव द्वारा ब्रह्म के साथ ब्रह्मानन्द के आस्वादन का सौभाग्य ही "महारास" है।
काम तभी तक जीव को सताता है जब तक जीव जगत में रहे, जगदीश की शरण लेते ही उसका काम स्वतः गल जाता है। अतः "महारास" जीव और जगदीश का मिलन ही है। इसीलिए श्रीमद् भागवत जी में कहा गया कि जो काम को मिटाकर राम से मिला दे, वही "महारास" है।
श्रीकृष्ण द्वारा उसी आनंद रूप रस का गोपिकाओं के मध्य वितरण ही तो "रास" है। यानि एक ऐसा महोत्सव जिसमें स्वयं ब्रह्म द्वारा जीव को अपने ब्रह्म रस में डुबकी लगाने का अवसर प्रदान किया जाता है। जीवन के अन्य सभी सांसारिक रसों का त्याग कर जीव द्वारा ब्रह्म के साथ ब्रह्मानन्द के आस्वादन का सौभाग्य ही "महारास" है।
काम तभी तक जीव को सताता है जब तक जीव जगत में रहे, जगदीश की शरण लेते ही उसका काम स्वतः गल जाता है। अतः "महारास" जीव और जगदीश का मिलन ही है। इसीलिए श्रीमद् भागवत जी में कहा गया कि जो काम को मिटाकर राम से मिला दे, वही "महारास" है।
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