श्रीगणेश साक्षात् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप
भगवान शंकर द्वारा पार्वतीजी को ‘पुण्यक-व्रत’ के लिए प्रेरित करना
भगवान
शंकर ने पार्वतीजी से कहा–
‘मैं तुमको एक उपाय बतलाता
हूँ क्योंकि तीनों लोकों में
उपाय से ही कार्य में सफलता
प्राप्त होती है। भगवान
श्रीकृष्ण की आराधना करके
‘पुण्यक’ नामक व्रत का एक वर्ष
तक पालन करो। यद्यपि भगवान
गोपांगनेश्वर श्रीकृष्ण सब
प्राणियों के अधीश्वर हैं,
फिर
भी वे इस व्रत से प्रसन्न होकर
तुमको पुत्ररूप में प्राप्त
होंगे।’
शंकरजी
की बात मानकर पार्वतीजी ने
विधिपूर्वक ‘पुण्यक व्रत’
किया। व्रत की समाप्ति पर
उत्सव मनाया गया। इस महोत्सव
में ब्रह्मा,
लक्ष्मीजी
सहित विष्णु,
समस्त
देवता,
ऋषि-मुनि,
यक्ष,
गन्धर्व,
किन्नर
व सभी पर्वतराज पधारे। भगवान
शशांकशेखर और सर्वदारिद्रदमनी
जगज्जननी के सुप्रबन्ध का
क्या कहना !
जहां
शचीपति इन्द्र दानाध्यक्ष,
कुबेर
कोषाध्यक्ष,
भगवान
सूर्य सबको आदेश देने वाले
और वरुण परोसने का कार्य कर
रहे थे।
भगवान विष्णु का व्रत के माहात्म्य तथा गणेश की उत्पत्ति का वर्णन करना
भगवान
विष्णु ने शंकरजी से कहा–’आपकी
पत्नी ने संतान-प्राप्ति
के लिए जिस पुण्यक-व्रत
को किया है,
वह
सभी व्रतों का साररूप है।
सूर्य,
शिव,
नारायण
आदि की दीर्घकाल तक उपासना
करने के बाद ही मनुष्य कृष्णभक्ति
को पाता है। कृष्णव्रत और
कृष्णमन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं
के फल के प्रदाता हैं। चिरकाल
तक श्रीकृष्ण की सेवा करने
से भक्त श्रीकृष्ण-तुल्य
हो जाता है। पुण्यक-व्रत
के प्रभाव से स्वयं परब्रह्म
गोलोकनाथ श्रीकृष्ण पार्वती
के अंक में क्रीड़ा करेंगे।
वे स्वयं समस्त देवगणों के
ईश्वर हैं,
इसलिए
त्रिलोकी में ‘गणेश’ नाम से
जाने जाएंगे। चूंकि पुण्यक-व्रत
में उन्हें तरह-तरह
के पकवान समर्पित किए जायेंगे,
जिन्हें
खाकर उनका उदर लम्बा हो जाएगा;
अत:
वे
‘लम्बोदर’ कहलायेंगे। इनके
स्मरणमात्र से जगत के विघ्नों
का नाश हो जाता है,
इस
कारण इनका नाम ‘विघ्ननिघ्न’
भी होगा। शनि की दृष्टि पड़ने
से सिर कट जाने से पुन:
हाथी
का सिर जोड़ा जायेगा,
इस
कारण उन्हें ‘गजानन’ कहा
जायेगा। परशुराम के फरसे से
जब इनका एक दांत टूट जायेगा,
तब
ये ‘एकदन्त’ कहलायेंगे। ये
जगत के पूज्य होंगे और मेरे
वरदान से उनकी सबसे पहले पूजा
होगी।’
अस्वाभाविक दक्षिणा
भगवान
विष्णु की बात सुनकर पार्वतीजी
ने पूरे विधान के साथ उस व्रत
को पूर्ण किया और ब्राह्मणों
को खूब दक्षिणा दी। अंत में
पार्वतीजी ने पुरोहित सनत्कुमारजी
से कहा–’मैं आपको मुंहमांगी
दक्षिणा दूंगी।’ सनत्कुमार
ने पार्वतीजी से कहा–’मैं
दक्षिणा में भगवान शंकर को
चाहता हूँ,
कृपया
आप मुझे उन्हें दीजिए। अन्य
विनाशी पदार्थों को लेकर मैं
क्या करुंगा।’ भगवान
श्रीकृष्ण की योगमाया से
पार्वतीजी की बुद्धि मोहित
हो गयी और यह ऐसी निष्ठुर वाणी
सुनकर वह मूर्च्छित होकर गिर
गईं।
दक्षिणा का महत्व
भगवान
विष्णु ने पार्वतीजी को समझाते
हुए कहा–दक्षिणा देने से
धर्म-कर्म
का फल और यश मिलता है। दक्षिणा
रहित देवकार्य,
पितृकार्य
व नित्य-नियम
आदि निष्फल हो जाते हैं।
ब्राह्मणों को संकल्प की हुई
दक्षिणा उसी समय नहीं देने
से वह बढ़कर कई गुनी हो जाती
है। अत:
तुम
पुरोहित की मांगी हुई दक्षिणा
दे दो।हम लोगों के यहां रहते
तुम्हारा अकल्याण संभव नहीं।
पार्वतीजी
ने कहा–‘जिस
कर्म में पति की ही दक्षिणा
दी जाती है,
उस
कर्म से मुझे क्या लाभ?
पतिव्रताओं
के लिए पति सौ पुत्रों के समान
होता है। यदि व्रत में पति को
ही दे देना है,
तो
उस व्रत के फलस्वरूप पुत्र
से क्या सिद्ध होगा?
मानाकि
पुत्र पति का वंश होता है,
किन्तु
उसका एकमात्र मूल तो पति ही
है। यदि मूलधन ही नष्ट हो जाए
तो सारा व्यापार ही निष्फल
हो जाएगा।’
भगवान
विष्णु ने कहा–’शिवे !
तुम
शिव को दक्षिणारूप में देकर
अपना व्रत पूर्ण करो। फिर उचित
मूल्य देकर अपने पति को वापस
कर लेना।’
पार्वतीजी
ने हवन की पूर्णाहुति करके
अपने जीवनधन भगवान शिव को
दक्षिणारूप में सनत्कुमार
को दे दिया। पुरोहित सनत्कुमार
जैसे ही महादेवजी को लेकर चलने
लगे,
पार्वतीजी
को बहुत दु:ख
हुआ।
भगवान
नारायण के समझाने पर पार्वतीजी
ने सनत्कुमार से कहा–’एक गौ
का मूल्य मेरे स्वामी के समान
है। मैं आपको एक लाख गौएं देती
हूँ। कृपया मेरे पति को लौटाकर
आप एक लाख गायों को ग्रहण
कीजिए।’ परन्तु पुरोहित
सनत्कुमार ने कहा–’आपने मुझे
अमूल्य रत्न दक्षिणा में दिया
है,
फिर
मैं उसके बदले एक लाख गौ कैसे
ले सकता हूँ?
इन
गायों को लेकर तो मैं और भी
झंझट में फंस जाऊंगा।’
पार्वतीजी की व्याकुलता
पार्वतीजी
सोचने लगीं–‘मैंने
यह कैसी मूर्खता की,
पुत्र
के लिए एक वर्ष तक पुण्यक व्रत
करने में इतना कष्ट भोगा पर
फल क्या मिला?
पुत्र
तो मिला ही नहीं,
पति
को भी खो बैठी। अब पति के बिना
पुत्र कैसे होगा?’
इसी
बीच सभी देवताओं व पार्वतीजी
ने आकाश से उतरते हुए एक तेज:पुंज
को देखा। उस तेज:पुंज
को देखकर सभी की आंखें मुंद
गयीं। किन्तु पार्वतीजी ने
उस तेज:पुंज
में पीताम्बरधारी भगवान
श्रीकृष्ण को देखा।
प्रेमविह्वल
होकर पार्वतीजी उनकी स्तुति
करने लगीं–
’हे
कृष्ण !
आप
तो मुझको जानते हैं;
परन्तु
मैं आपको जानने में समर्थ नहीं
हूँ। केवल मैं ही नहीं,
बल्कि
वेद को जानने वाले,
अथवा
स्वयं वेद भी अथवा वेद के
निर्माता भी आपको जानने में
समर्थ नहीं हैं। मैं पुत्र
के अभाव से दु:खी
हूँ,
अत:
आपके
समान ही पुत्र चाहती हूँ। इस
व्रत में अपने ही पति की दक्षिणा
दी जाती है,
अत:
यह
सब समझकर आप मुझ पर दया करें।’
परमात्मा श्रीकृष्ण का पार्वतीजी को वर प्रदान करना
पार्वतीजी
की स्तुति सुनकर श्रीकृष्ण
ने उनको अपने स्वरूप के दर्शन
कराए। नवीन मेघ के समान श्याम
शरीर पर अद्भुत पीताम्बर,
रत्नाभूषणों
से अलंकृत,
करकमलों
में मुरली,
ललाट
पर चंदन की खौर और मस्तक पर मन
को मोहित करने वाला सुन्दर
मयूरपिच्छ। इस अनुपम सौन्दर्य
की कहीं तुलना नहीं थी।
द्विभुजं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम्।
शान्तं गोपांगनाकान्तं रत्नभूषणभूषितम्।।
एवं तेजस्विनं भक्ता: सेवन्ते सततं मुदा।
ध्यायन्ति योगिनो यत् यत् कुतस्तेजस्विनं विना।।
भगवान
श्रीकृष्ण पार्वतीजी को अभीष्ट
सिद्धि का वरदान देकर अन्तर्ध्यान
हो गए।
श्रीगणेश विशाल तोंद वाले कैसे हो गए?
भगवान
शंकर और पार्वतीजी अपने आश्रम
पर विश्राम कर रहे थे,
उसी
समय किसी ने उनका द्वार खटखटाया
और पुकारा–’जगत्पिता महादेव
!
जगन्माता
पार्वती !
उठिए,
मैंने
सात रात्रि का उपवास किया है,
इसलिए
मैं बहुत भूखा हूँ। मुझे भोजन
देकर मेरी रक्षा कीजिए।’
पार्वतीजी ने देखा एक अत्यन्त
वृद्ध,
दुर्बल
ब्राह्मण,
फटे
व मैले कपड़े पहने उनसे कह रहा
है–
’मैं
सात रात तक चलने वाले व्रत के
कारण भूख से व्याकुल हूँ। आपने
पुण्यक-व्रत
के महोत्सव में बहुत तरह के
दुर्लभ पकवान ब्राह्मणों को
खिलाए हैं;
मुझे
आप दूध,
रबड़ी,
तिल-गुड़
के लड्डू,
पूड़ी-पुआ
मेवा मिष्ठान्न,
अगहनी
का भात व खूब सारे ऋतु अनुकूल
फल व ताम्बूल–इतना खिलाओ जिससे
यह पीठ से सटा मेरा पेट बाहर
निकल आए,
मेरी
सुन्दर तोंद हो जाए,
और
मैं लम्बोदर हो जाऊं। समस्त
कर्मों का फल प्रदान करने वाली
माता!
आप
नित्यस्वरूपा होकर भी लोकशिक्षा
के लिए पूजा और तप करती हैं।
प्रत्येक कल्प में गोलोकवासी
श्रीकृष्ण गणेश के रूप में
आपकी गोद में क्रीड़ा करेंगे।’
परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण का बालरूप में उनकी शय्या पर खेलना
ऐसा
कहकर वह ब्राह्मण अन्तर्ध्यान
हो गये और आकाशवाणी हुई–’हे
पार्वति !
जिसको
तुम खोज रही हो,
वह
तुम्हारे घर में आ गया है।
गणेशरूप में श्रीकृष्ण प्रत्येक
कल्प में आपके पुत्र बनकर आते
हैं। आप शीघ्र अन्दर जाकर
देखिए।’ भगवान श्रीकृष्ण
इतना कहकर बालकरूप में आश्रम
के अंदर बिछी शय्या पर जाकर
लेट गए और शय्या पर पड़े हुए
शिवजी के तेज में लिप्त हो गए
और जन्मे हुए बालक की भांति
घर की छत को देखने लगे।
पार्वतीजी
ने अत्यन्त सुन्दर बालक को
शय्या पर हाथ-पैर
पटककर खेलते हुए देखा और भूख
से ‘उमा’ ऐसा शब्द करके रोते
देखा,
तो
प्रेम से उसे गोद में उठा लिया
और बोली–
’जैसे
दरिद्र का मन उत्तम धन पाकर
संतुष्ट हो जाता है,
उसी
तरह तुझ सनातन अमूल्य रत्न
की प्राप्ति से मेरा मनोरथ
पूर्ण हो गया।’
मायारूपा
पार्वती का यह व्रत लोकशिक्षा
के लिए है,
क्योंकि
त्रिलोकी में व्रतों और तपस्याओं
का फल देने वाली तो ये स्वयं
ही है। इस कथानक का यही संदेश
है कि कठिन लक्ष्य को भी मनुष्य
अपनी अथक साधना और निष्ठा से
प्राप्त कर सकता है।
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