Saturday 30 September 2017

जीवन रुपी वृक्ष को कैसे संवारें..

मार्गदर्शक चिंतन-

जीवन एक वृक्ष है, संस्कार इसमें दिया जाने वाला खाद पानी और आचरण ही इसका फल है। जीवन रुपी इस वृक्ष में संस्कार रुपी खाद पानी का जितना सुन्दरतम सिंचन किया जाएगा, आचरण रुपी फल भी उतना ही मधुरतम व श्रेष्ठतम होगा।
हरियाली अवश्य किसी वृक्ष का सौंदर्य है फल उसकी सार्थकता । जिस प्रकार फल वृक्ष की उपयोगिता को बड़ा देते हैं। ऐसे ही हमारा आचरण ही संसार में हमारी उपयोगिता का निर्धारण भी करता है।
फल जितना सुस्वादु व मधुर होगा वृक्ष की उपयोगिता उतनी ही अधिक। ठीक ऐसे ही हमारा आचरण भी जितना मधुर अथवा श्रेष्ठ होगा समाज में हमारी उपयोगिता भी उतनी ही अधिक होगी।

Thursday 28 September 2017

नवरात्र रहस्य..जय मां सिद्धिदात्री

नवरात्र के समापन यानि नवम दिवस में सिद्धि प्रदान कराने वाली देवी सिद्धिदात्री देवी की पूजा की जाती है। सिद्धि का अर्थ भौतिक वैभव नहीं अपितु आध्यात्मिक वैभव प्राप्त करना है। जो प्रभु की सुधि दिलाए वही सिद्धि है।
जो प्रभु का विस्मरण करादे वह दौलत किसी काम की नहीं। वह बाहर से तो तृप्त करती है पर भीतर का खालीपन नहीं जाता। 9 दिन के ये व्रत, अनुष्ठान व्यक्ति को शारीरिक और आत्मिक रूप से शुद्ध करते हैं। जिसका जीवन शुद्ध है वही वुद्ध है और वही सच्ची सिद्धि को प्राप्त कर पाता है।
शैल ( पत्थर ) पुत्री अर्थात जड़त्व से प्रारम्भ होने वाला यह पर्व सिद्धिका पर जाकर सम्पन्न होता है। जीवन का प्रारम्भ चाहे मूढ़ता से हो कोई बात नहीं पर समाप्ति सिद्धि (ज्ञान प्राप्ति) से हो, यही जीवन की वास्तविक उन्नति है। माँ से प्रार्थना, हमें गोविन्द चरणों में प्रेम हो, ऐसी सिद्धि दे दो।

परमार्थ में जीना ही कल्याणकारी है...

मार्गदर्शक चिंतन-

आज का मनुष्य समझदार कम और स्वार्थी ज्यादा हो गया इसलिए इसके कर्म भी अब समझदारी भरे नहीं अपितु स्वार्थ भरे ज्यादा होने लगे। शुभ कर्म तो आज का आदमी कर रहा है मगर इसका उद्देश्य बदल गया है। यह अब मंदिर अर्चना करने कम और याचना करने ज्यादा जाने लगा है।
समझदारी की बातें करने वाला यह आदमी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए कहाँ तक जा सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। निम्नता का कोई ऐसा गर्त नहीं जहाँ आज का आदमी अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए न पहुँचा हो।
स्वसुख के लिए किए जाने वाला प्रत्येक श्रेष्ठ कर्म भी स्वार्थ व परहित की दृष्टि से संपन्न प्रत्येक सामान्य कर्म भी परमार्थ है। स्वार्थ क्षणिक सुख है और परमार्थ शाश्वत आनंद। अत: स्वार्थ में नहीं परमार्थ में जीना सीखो।

Wednesday 27 September 2017

क्यों जरुरी है तुलसी की माला धारण करना..



तुलसी की माला जरूर पहने
साधारण काष्ठ नहीं है तुलसी की माला.... साधारण काष्ठ नहीं है तुलसी की माला वैष्णव चिह्न से भी आगे की चीज़ है। हमारा यह शरीर भगवान का मंदिर है जिसमें युगल सरकार राधाकृष्ण का वास है, और हमारी आत्मा ही प्रभु का शरीर है। जब हम तुलसी की माला गले में पहनते हैं तो हम कहते हैं:- "भगवान हम जैसे भी हैं तुम्हारे ही हैं। "तुलसी की माला समर्पण के इसी पूर्णत्व का प्रतीक है, तथा अन्य वैषणव चिह्न - तिलक और छापा (रामनौमी). सुनिश्चित जानिये इन्हें पहनने का लाभ आपको तो मिलेगा साथ परिवार के अन्य लोगों को भी इसका लाभ मिलेगा। कविवर रसखान अपने गले में असंख्य तुलसी मालाओं को धारण किए रहते थे। एक बार किसी ने रसखान जी से पूछा- 'महाराज आप इतनी अधिक काष्ठ मालाएं क्यों पहने रहते हैं? 'रसखान जी बोले - 'मैं नीच कुल में पैदा हुआ हूँ, मैं नहीं जानता पाप क्या है, लेकिन इतना मैंने संतों से सुना है की तुलसी की यह माला साधारण काष्ठ की माला नहीं है। यह मेरा भी बेड़ा पार कर देगी और मेरे कुल का भी बेड़ा पार होगा ऐसा मैं सोचता हूँ। मुझे यह जानने में अब बहुत देर हो गई है कि पाप का उपाय क्या है, लेकिन यह साधारण सा उपाय तो मैं कर ही सकता हूँ। इसीलिए मैं इतना ब्रह्म काष्ठ धारण किये रहता हूँ।
'तुलसी जी की काष्ठ को ब्रह्म काष्ठ कहा गया है। वर्षों पहले साधारण लकड़ी के स्लीपर (स्लीपर यानी लकड़ी के लठ्ठे) को जोड़कर उस दौर में यूं ही नदी में बहा दिया जाता था, जिनको नियत स्थान पर पानी से निकाल भी लिया जाता था।उनके साथ उन पर बैठे-खड़े छोटे बच्चे तथा बड़े मीलों मील तक सफर करते थे। साधारण लकड़ी भी जब आपको जल में डूबने नहीं देती तो यह तो कल्याणी ब्रह्मकाष्ठ है तुलसी की माला।कल्याणी इसलिए कि यह जगत का कल्याण करती है। महाविष्णु के चरण कमलों की शोभा हैं, प्रिया हैं तुलसी जी। तुलसी की माला पहनकर घर पर साधारण स्नान करने वालों को तमाम तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त होता है। यदि मृत्यु के समय किसी के गले में तुलसी की माला का एक मनका भी मौजूद रहता है तो सुनिश्चित जानो वह नरक (निम्नतर योनियों ) में नहीं जाएगा, ऐसा हमारे शास्त्र कहते हैं। पद्मपुराण, गरुण एवं स्कन्दपुराण में तुलसी की महिमा का बखान आया है। मान्यता है तुलसी की माला पहनने के लिए सुपात्र बनना ज़रूरी है। आपका आचरण शुद्ध हो, खानपान शुद्ध हो यानी आप वही खाएं जिसे आप ठाकुर जी पर भी अर्पित कर सकते हों। है न फायदा आपका खानपान शुद्ध हो जाएगा तो आपका स्वास्थ्य भी ठीक बना रहेगा और मन भी।स्वस्थ चित्त में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। तुलसी की माला मानसिक परेशानियों को घटाने तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाने की असली औषधि है। संकोच न करें तुलसी माला पहनने में। कई सभ्रांत महिलाएं ऐसा सोचतीं हैं की रज का तिलक और तुलसी की माला सुहागिन स्त्रियों को नहीं पहननी चाहिए। मगर हमारे शास्त्रों में ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है कि सुहागिन स्त्रियों को तुलसी माला नहीँ पहनी चाहिए। इसलिए सभी स्त्रियों ,पुरुषों एवं बच्चों को बगैर किसी शंका और संकोच के तुलसी माला को धारण करना चाहिए।
जय श्रीराधे

क्यो जरुरी है मस्तक पर तिलक लगाना...

जय श्री राधे ।
चंदन तिलक अवश्य लगाएं ~
हमारे धर्मं में चन्दन के तिलक का बहुत महत्व बताया गया है
चन्दन तिलक का महत्व~
शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
भगवान को चंदन अर्पण~
भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण~
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।तिलक का महत्वहिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है । मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एकतरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
शास्त्रों के अनुसार~
शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर, ताकि मन में उस केन्द्रबिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैःशनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । अतः इसे तिलक या टीके के माधअयम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकें ।
चन्दन लगाने के प्रकार~
स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, शैव त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है, जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है।
नारद पुराण में उल्लेख आया है-
१. ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र,
२. क्षत्रिय को त्रिपुण्ड,
३. वैश्य को अर्धचन्द्र,
४. शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये।
योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है।
चन्दन के प्रकार~
१. हरि चन्दन - पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है।
२. गोपीचन्दन- गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है, जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था, जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है।
जय श्री राधे।

नवरात्र रहस्य..जय मां महागौरी

नवरात्र के अष्टम दिन में आज माँ के महागौरी स्वरूप की पूजा की जाती है। हमारे शास्त्रों का, ऋषियों का चिंतन तो देखो नौ दिन के पूरे पर्व को ही नारी की आराधना का पर्व बना दिया।
महागौरी की पूजा करने वाले देश में आज गर्भ के भीतर गौरी को मारा जा रहा है। पुत्र की चाह में उसकी निर्ममता से हत्या की जा रही है। ना वह गर्भ के भीतर सुरक्षित है और ना ही गर्भ के वाहर। बेटी, बहिन, पत्नी, माँ, दादी ना जाने कितने रूपों में हमें कन्या संभालती है।
आज अष्टमी को कन्याओं को पूजते समय दो संकल्प जरूर ले लेना। पहला ये कि गर्भ के भीतर किसी गौरी की हत्या ना तो करेंगे ना करने देंगे। दूसरा स्त्री के प्रति सम्मान की दृष्टि रखेंगे और जीवन के किसी भी सम्बन्ध में नारी हमारे द्वारा या हमारे कारण दुख ना पाए। यही वास्तविक और यथार्थ में महागौरी पूजा होगी

कैसा हो आपका कर्म...

मार्गदर्शक चिंतन-

कर्म यदि भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति के लिए किया जाता है तो वह रोग कहलाता है। और वही कर्म यदि ईश्वर प्राप्ति के लिए किया जाता है तो वह योग बन जाता है।
योग का अर्थ कर्म विशेष तो नहीं हाँ लक्ष्य विशेष जरूर है। कर्म क्या किया यह महत्वपूर्ण नहीं अपितु क्यों किया यह महत्वपूर्ण है।
भागवत जी में गोपियों का रोना भी योग बन गया तो महाभारत में अर्जुन का लड़ना व रामायण में शबरी का भगवान को झूठे बेरों का भोग लगाना ही योग बन गया। लक्ष्य भोग है तो प्रत्येक कर्म रोग है और लक्ष्य अगर ईश्वर है तो फिर प्रत्येक कर्म योग है।

Tuesday 26 September 2017

नवरात्र रहस्य..जय मां कालरात्रि..

नवरात्र के 7वे दिन आज माँ काली की उपासना की जाती है तथा यह दिन कालरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। जीवन की अज्ञान और तमस भरी काल रात्रि में माँ की ज्ञान रुपी पावन ज्योति सत्मार्ग की ओर प्रेरित करती है।
अम्बे-जगदम्वे से आखिर माँ को काली क्यों बनना पड़ा ? समाज पर, रास्ट्र पर, धर्म पर, संस्कृति पर जब घोर अत्याचार होने लगा राजसत्ता असहाय बन गई। राक्षसी शक्तियाँ हावी हो गई तब माँ ने परिस्थिति अनुसार स्वयं शस्त्र धारण कर आसुरी शक्तियों का ना केवल नाश किया अपितु नारी के भीतर छिपी हुईं शक्तियों से समाज को परिचित कराया।
अन्याय से, अत्याचार से, सामाजिक कुरीतियों से, विषमताओं से लड़ने में नारी शक्ति के जागरण की बहुत बड़ी आवश्यकता है। अभिमन्यु तभी मरता है जब कोई सुभद्रा सो जाती है। एक नए भारत के निर्माण में आप सब की बड़ी भूमिका है। ममतामय रूप से काली बने माँ के स्वरूप को प्रणाम।

कैसे करें कन्या पूजन..क्या रखें सावधानी..

कैसे करें कन्या पूजन..क्या रखें सावधानी..
1..नौ दुर्गा का मतलब नौ वर्ष की कन्या की पूजा करना होता है. कन्या पूजन दो वर्ष की कन्या से शुरू किया जाता हैl
2.. वर्ष की कन्या को "कुमारिका" कहते हैं और इनके पूजन से धन , आयु , बल की वृद्धि होती है l
3.. वर्ष की कन्या को ' त्रिमूर्ति ' कहते हैं और इनके पूजन से घर में सुख समृद्धि आती है l
4..वर्ष की कन्या को ' कल्याणी ' कहते हैं और इनके पूजन से सुख तथा लाभ मिलते हैं l
5.. वर्ष की कन्या को ' रोहिणी ' कहते हैं इनके पूजन से स्वास्थ्य लाभ मिलता है l
6.. वर्ष की कन्या को ' कालिका ' कहते हैं इनके पूजन से शत्रुओं का नाश होता है l
7..वर्ष की कन्या को ' चण्डिका ' कहते हैं इनके पूजन से संपन्नता ऐश्वर्य मिलता है l
8.. वर्ष की कन्या को ' साम्भवी ' कहते हैं इनके पूजन से दुःख-दरिद्रता का नाश होता है l
9..वर्ष की कन्या को ' दुर्गा ' कहते हैं इनके पूजन से कठिन कार्यों की सिद्धि होती है l
10.. वर्ष की कन्या को ' सुभद्रा ' कहते हैं इनके पूजन से मोक्ष की प्राप्ति होती है l

सावधानी- कन्या पूजन में खास सावधानी यह है कि किसी जाति विशेष की कन्या के प्रति उदासीनता न रखें..कन्या पूजन में हर जाति विशेष वर्ग की कन्या को भोजन कराया जा सकता है..

कैसा हो जीवन में संकल्प..

मार्गदर्शक चिंतन-

जिस प्रकार वृक्ष जितना बड़ा होगा उसके बीज से अंकुरित होने की यात्रा भी उतनी ही लंबी होगी। ठीक इसी प्रकार जीवन के संकल्प जितने श्रेष्ठ होंगे उनको साकार रूप में आने में उतना ही समय लगेगा।
शुभ संकल्प रुपी बीज ऐसे ही फलित नहीं हो जाऐंगे इसके लिए इसे परिश्रम रुपी जल से सिंचन करना पड़ेगा और संकल्प रुपी खाद डालनी पड़ेगी। कुसंग रुपी खर पतवार से इसकी रक्षा करनी पड़ेगी और झंझावट रुपी घोर निराशा से इसे बचाना भी पड़ेगा।
इतना सब कुछ तो आपको करना ही पड़ेगा उसके बाद आपके सामने जो कुछ होगा वह मात्र एक बीज नहीं अपितु एक विशाल वृक्ष होगा जिसकी शीतल छाया तले लोग विश्राम व मधुर फलों से तृप्ति पा रहे होंगे। तब आपको मिल रहा होगा एक परम धन्यता का आभास और जीवन की सार्थकता का आनंद।

Monday 25 September 2017

नवरात्र रहस्य..जय मां कात्यायनी..

नारी से नारायणी की यात्रा का पर्व ही नवरात्र है। यह पर्व नारी के जीवन के उच्चतम स्तर को रेखांकित करता है। दुनिया में कुछ लोग भले ही नारी को भोग की वस्तु या उसे अपने से कमतर आंकते हों। मगर एक नारी चाहे तो कौन सा पद प्राप्त नहीं कर सकती ? माँ दुर्गा के चरित्र को देखो। 
माँ का जन्म दिव्य है इसलिए इतने देवताओं को होते हुए वो पूज्या नहीं हुईं अपितु उनके कर्म दिव्य हैं इसलिए वो पूज्या हुईं। परहित और परोपकार की भावना से जो कर्म करता है, देर से ही सही समाज उसको पूजता अवश्य है।
जगत की तो छोड़ो जगदीश प्राप्ति की भी जब गोपियों ने ठान ली और कृष्ण प्राप्ति के लिए माँ भगवती की शरण में गईं तो गोविन्द को भी प्राप्त कर लिया। माँ के कात्यायनी स्वरूप की गोपियों ने आराधना की। नवरात्र के 6वे दिन आज माँ कात्यायनी की ही पूजा की जाती है।

जानिए कैसी हो आपकी सोच..

मार्गदर्शक चिंतन-

इस दुनियाँ का प्रत्येक आदमी इस मनस्थिति में जीता है कि मैं इस दुनियाँ का सबसे समझदार व्यक्ति हूँ। मेरे द्वारा संपन्न प्रत्येक कर्म शुभ व श्रेष्ठ है और इस दुनियाँ को सबसे बेहतर ढंग से चला सकता हूँ तो वह केवल मैं ही हूँ।
इसी मनोदशा में जीने वाले रावण ने माँ जानकी का ही हरण कर लिया, धृतराष्ट्र ने दुर्योधन के रूप में अनीति का वरण कर लिया और दुस्शासन ने अपने ही कुल की मान मर्यादाओं का क्षरण कर दिया व कंस ने अपने ही हाथों अपने भांजों का मरण कर दिया।
इस महान भारत में कभी भी महाभारत न हुआ होता अगर मनुष्य इन मनोवृत्तियों का दासत्व स्वीकार नहीं करता। अत: अपनी मनोदशा को सदा सर्वदा उच्च रखने का प्रयत्न करो ताकि आपका जीवन उचित दिशा की और अग्रसर हो सके।

Sunday 24 September 2017

नवरात्र रहस्य...जय मां स्कंदमाता

नवरात्र के पांचवे दिन आज स्कन्द माता की आराधना की जाती है। स्कन्द कार्तिकेय जी का दूसरा नाम है। कार्तिकेय जी को पुरुषार्थ का स्वरूप बताया गया है। कर्म करने वाला ही ऊंचाइयों को प्राप्त करता है व हर ऐच्छिक वस्तु उसे प्राप्त होती है।
माँ हिंसक सिंह पर सवार रहती हैं इसका अर्थ ही यही है कि उन्होनें चुनोतियों से मुख मोड़ा नहीं, अपितु उन्हें स्वीकार कर लिया है। चुनौतियाँ वाहुवल के दम पर नहीं अपितु आत्मवल के दम पर जीती जाती हैं।
आत्मवल के धनी समस्या रुपी शेर की सवारी करते हैं अर्थात समस्या को अपने अनुकूल बना लेते हैं। वहीँ कमजोर लोग समस्या का शिकार हो जाते हैं। पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करने वाले माँ के इस स्वरूप को प्रणाम।

नवरात्र रहस्य..जय मां कूष्मांडा..

दुनिया में केवल शक्ति सम्पन्न होने मात्र से ही कोई भी पूज्यनीय और वन्दनीय नहीं बन जाता है अपितु उस शक्ति का सही प्रयोग और समय पर प्रयोग करने वालों को ही युगों युगों तक स्मरण रखा जाता है।
अथाह शक्ति सम्पन्न होने पर भी माँ दुर्गा ने अपनी सामर्थ्य का प्रयोग कभी भी किसी निर्दोष को दण्डित करने हेतु नहीं किया बल्कि केवल और केवल आसुरी वृत्तियों के नाश के लिए ही किया।शक्ति का गलत दिशा में प्रयोग ही तो पाप है। साधन शक्ति सम्पन्न हो जाने पर कायर बनकर चुप बैठ जाना यह भी एक प्रकार से असुरत्व को बढ़ाने जैसा ही है।
अपनी समस्त शक्ति व साधनों को मानवता की रक्षा में लगाने की प्रेरणा हमें माँ जग जननी भगवती से लेनी होगी तभी हम माँ के पुत्र कहलाने योग्य होंगे। नवरात्रि के चौथे दिन माँ के " कुष्मांडा " स्वरुप का पूजन व वंदन किया जाता है।

जानिए क्या है स्वर्ग और नरक..

मार्गदर्शक चिंतन

नरक का अर्थ वह स्थान नहीं जहाँ गलत कर्म करने वाला आदमी मरने के बाद जाता है अपितु वह स्थान है जहाँ जीवित आदमी द्वारा गलत कर्म किए जाते हैं। जहाँ पर दूसरों के साथ छल कपट का व्यवहार किया जाता हो जहाँ पर दूसरों को गिराने की योजनाएँ बनायीं जाती हों और जहाँ पर दूसरों की उन्नति पर ईर्ष्या की जाती हो वह स्थान नर्क नहीं तो और क्या है ?नरक अर्थात् वह स्थान जहाँ के वातावरण का निर्माण हमारी दुष्प्रवृत्तियों और हमारे दुर्गुणों द्वारा होता है। और स्वर्ग अर्थात वह वातावरण जिसका निर्माण हमारी सदप्रवृत्तियों व सदगुणों द्वारा होता है। मरने के बाद हम कहाँ जाएगें यह महत्वपूर्ण नहीं अपितु हमने जीवन किस परिवेश में जिया, यह महत्वपूर्ण है।
मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति जीवन की उपलब्धि हो ना हो मगर जीते जी स्वर्ग जैसी परिस्थितियों का निर्माण कर लेना, यह अवश्य जीवन की उपलब्धि है।

Saturday 23 September 2017

नवरात्र रहस्य..जय मां चंद्रघंटा

दुर्गा शक्ति की उत्पत्ति के पीछे भी बहुत से कारण हैं तथापि मुख्यतः जगत जननी माँ जगदम्बा द्वारा दुर्गम नामक असुर का नाश करने के कारण ही उनका नाम' दुर्गा' पड़ा।
'दुर्गा दुर्गति नाशिनी' अर्थात दुर्गति का नाश कर इस जीव को सदगति प्रदान करने वाली शक्ति का नाम ही दुर्गा है।
दुर्गम अर्थात जिस तक पहुंचना आसान काम नहीं अथवा जिसका नाश करना हमारी सामर्थ्य से बाहर हो। मनुष्य के भीतर छुपे यह काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुण ही तो दुर्गम असुर हैं जिसका नाश करना आसान तो नहीं मगर माँ की कृपा से इनको जीत पाना कठिन भी नही।
नारी के भीतर छुपे स्वाभिमान व सामर्थ्य का प्राकट्य ही' दुर्गा' है। परम शक्ति सम्पन व परम वन्दनीय होने पर भी जब जब समाज में नारी के प्रति एक तिरस्कृत भाव रखा जाएगा, तब- तब नारी द्वारा अपना शक्ति प्रदर्शन का नाम ही 'दुर्गा' है। नवरात्र के तीसरे दिन माँ चन्द्र घंटा की उपासना की जाती है।

नवरात्र रहस्य..जय मां ब्रह्मचारिणी

शक्ति ही जीवन और जगत का आधार है। शक्ति के विना जीवन अधूरा और निष्प्राण हो जाता है। जीवनदायिनी शक्ति की पूजा का पर्व ही नवरात्र है। नवरात्र के दूसरे दिन माँ व्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। व्रह्म चारिणी अर्थात व्रह्म को भी चारण यानि अनुशासित करने वाली शक्ति। 
व्रह्म चारिणी का दूसरा अर्थ है जो व्रह्म में ही विचरण करे जो स्वयं ही व्रह्म स्वरुप हो जाए। इन देवी के बारे में कहा जाता है ये अति सौम्य , सरल , सदा प्रसन्न रहने वाली और कभी भी क्रोध ना करने वाली देवी है।
जिस जीवन में विनम्रता, सहजता होगी और पवित्रता होगी, वहाँ व्रह्म जरूर आते हैं। क्रोध जीवन की ऊर्जा का ह्रास करता है और कभी भी क्रोध ना करने के कारण ही देवी व्रह्म चारिणी शक्ति संपन्न होकर सबको नियंत्रित कर रही हैं।

नवरात्र रहस्य..जय मां शैलपुत्री

नवरात्र , सिर्फ़ नौ रातें नहीं अपितु जीवन की नवीन अथवा नई रात्रियाँ भी हैं। जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह व अंधकार का समावेश ही घनघोर रात्रि के समान है जिसमें प्रायः जीव सही मार्ग के अभाव में भटकता रहता है। हमारे शास्त्रों में अज्ञान और विकारों को एक विकराल रात्रि के समान ही बताया गया है।
इन दुर्गुण रूपी रात्रि के समन के लिए व जीवन को एक नई दिशा, उमंग, नया उत्साह देने की साधना और प्रक्रिया का नाम ही नवरात्र है। माँ दुर्गा साक्षात ज्ञान का ही स्वरूप है ओर नवरात्र में माँ दुर्गा की उपासना का का अर्थ ही ज्ञान रूपी दीप का प्रज्ज्वलन कर जीवन के अज्ञान के तिमिर का नाश करना है।
नवरात्र के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री अर्थात पर्वत राज हिमालय की कन्या के रूप में जन्मी माँ पार्वती का पूजन किया जाता है।

स्वयं को बदलों..फिर लो जीवन का आनंद..

मार्गदर्शक चिंतन-

किसी से बदला लेने का नहीं अपितु स्वयं को बदल डालने का विचार ज्यादा श्रेष्ठ है।महत्वपूर्ण यह नहीं कि दूसरे आपको गलत कहते हैं अपितु यह है कि आप गलत नहीं करते हैं।
बदले की आग दूसरों को कम, स्वयं को ज्यादा जलाती है। बदले की आग उस मसाल की तरह है जिसे दूसरों को खाक करने से पहले स्वयं को राख होना पड़ता है। इसीलिए सहनशीलता के शीतल जल से जितना जल्दी हो सके इस आग को भड़कने से रोकना ही बुद्धिमत्ता है।
बदले की भावना केवल आपके समय को ही नष्ट नहीं करती अपितु आपके स्वास्थ्य को भी नष्ट कर जाती है। अत: प्रयास जरूर करो मगर बदला लेने का नहीं अपितु स्वयं को बदल डालने का।

Thursday 21 September 2017

क्या करें जीवन को सुखी बनाने के लिए..

मार्गदर्शक चिंतन-

सुखी जीवन के लिए सर्वप्रथम यह जरुरी है कि एक दूसरे को सम्मानपूर्ण नजरों से देखा जाए और एक दूसरे से सम्मान पूर्वक व्यवहार किया जाए। परिवार में हो अथवा परिवार से बाहर जहाँ भी हम एक दूसरे से सम्मान पूर्वक व्यवहार करते हैं निश्चित ही वहाँ सुख अवश्य प्रकट हो जाता है।
व्यवहार की कुशलता ही परिवार के माहौल को सुखद बनाने हेतु एक प्रमुख कारण है। व्यवहार की कुशलता के अभाव में हमारा जीवन प्रायः कलहपूर्ण बन जाता है। अधिकांशतया परिवार की अशांति के पीछे एक ही बात सामने आती है और वह यह कि एक दूसरे के प्रति हमारे मन में सम्मान की कमी।
हर बार किसी से सहमत हों यह जरुरी नहीं मगर हर बार अपनी बात को सम्मानपूर्ण ढंग से रखना यह सुखी पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

Wednesday 20 September 2017

क्या हैं खुश रहने के मायने..

मार्गदर्शक चिंतन

खुश रहने के लिए जरुरी नहीं कि आपके पास सब कुछ हो अपितु सब कुछ पाने के लिए जरुरी है कि आपके पास ख़ुशी हो। अन्यथा दुखी मन से किया प्रयास कभी भी हमें उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचा सकता जहाँ कि हमें होना चाहिए था। सफलता प्राप्त होने का मतलब खुश होना नहीं, हाँ खुश रहने का मतलब सफलता प्राप्त करना है।
यद्यपि एक अर्थ में आज हमने वहुत कुछ प्राप्त कर लिया तथापि प्रसन्नचित्त के अभाव में हमारी उन उपलब्धियों का कुछ ज्यादा मोल भी नहीं। वे लोग खुश नहीं समझे जा सकते जो सफल हों मगर उन लोगों को जरूर सफल समझना चाहिए जो हमेशा खुश रहते हों।
मूल्य सफलता का नहीं प्रसन्नता का है क्योंकि भारतीय दर्शन में किसी भी आदमी को तब तक सफल नहीं समझा जाता जब तक कि वह प्रसन्न रहना न सीखे।

Tuesday 19 September 2017

कैसे दूर करें जीवन की निराशा...

मार्गदर्शक चिंतन-

निराशा अर्थात सफलता की दिशा में अपने बढ़ते हुए क़दमों को रोककर परिस्थितियों के आगे हार मान लेना है। निराशा का मतलव मनुष्य की उस मनोदशा से है जिसमें स्वयं द्वारा द्वारा किए जा रहे प्रयासों के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो जाता है।
निराशा जीवन और प्रसन्नता के बीच एक अवरोधक का कार्य करती है क्योंकि जिस जीवन में निराशा, कुंठा, हीनता आ जाए वहाँ सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति दरिद्र, दुखी और परेशान ही रहता है।
लोग आपके बारे में क्या सोचते है ? यह ज्यादा विचारणीय नहीं है। आप अपने बारे में क्या सोचते हैं यह महत्वपूर्ण है। स्वयं की क्षमताओं पर, प्रयासों पर और स्वयं पर भरोसा रखो। दुनिया की कोई भी चीज ऐसी नहीं जो मनुष्य के प्रयासों से बड़ी हो। निराशा में नहीं प्राप्तयाषा में जिओ।

Monday 18 September 2017

क्या है प्रार्थना का धर्म...

मार्गदर्शक चिंतन-

धर्म को अलग से करने की वजाय प्रत्येक कर्म को धर्ममय करना सीखो। आज हमारी प्रार्थना एक्शन बन कर रही गई है। होना यह चाहिए प्रत्येक एक्शन प्रार्थना जैसा हो जाए।
जीवन वीमा के इस युग में आज हमने धर्म को भी इस दृष्टि से देखना शुरू कर दिया है। साल में एक धार्मिक आयोजन या अनुष्ठान रुपी क़िस्त जमा कर , साल या 6 महीने के लिए निश्चिन्त हो जाते हैं। साल में एक बड़ा आयोजन या पूजा करने की वजाय प्रत्येक कर्म को, व्यवहार को , आचरण को धर्ममय करना सीखो।
हमारा व्यवहार, आचरण , हमारा बोलना, सुनना, देखना, सोचना सब इतना लयवद्ध और ज्ञानमय हो कि ये सब अनुष्ठान जैसे लगने लग जाएँ। धर्म के लिए अलग से कर्म करने की आवश्यकता नहीं है अपितु जो हो रहा है उसी को ऐसे पवित्र भाव से करें कि वही धर्म बन जाए।

Sunday 17 September 2017

गीता का ज्ञान..क्या है संसार..

मार्गदर्शक चिंतन-

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि केवल मूर्ति में मेरा दर्शन करने वाला नहीं अपितु सारे संसार में प्रत्येक जीव के भीतर और कण-कण में मेरा दर्शन करने वाला ही मेरा भक्त है। प्रत्येक वस्तु परमात्मा की है, अपनी मानते ही वह अशुद्ध हो जाती है। तुम भी परमात्मा के ही हो, परमात्मा से अलग अपना अस्तित्व स्वीकार करते ही तुम भी अशुद्ध हो जाते हो। 
प्रकृति में परमात्मा नहीं, अपितु ये प्रकृति ही परमात्मा है। जगत और जगदीश अलग-अलग नहीं, एक ही तत्व हैं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है वह जगत है और जगत का हो हिस्सा अदृश्य रह गया वह जगदीश है। 
संसार से दूर भागकर कभी भी परमात्मा को नहीं पाया जा सकता है। संसार को समझकर ही भगवान् को पाया जा सकता है। जगत में कहीं दुःख, अशांति, भय नहीं है। यह सब तो तुम्हें अपने मनमाने आचरण, असंयमता और विवेक के अभाव के कारण प्राप्त हो रहा है।

Saturday 16 September 2017

जानिए क्षमा गुण का महत्व..

मार्गदर्शक चिंतन-

मानवीय गुणों में एक प्रमुख गुण है "क्षमा" और क्षमा जिस भी मनुष्य के अन्दर है वो किसी वीर से कम नही है। यद्यपि किसी को दंडित करना या डाँटना आपके बाहुबल को दर्शाता है। मगर शास्त्र का वचन है कि बलवान वो नहीं जो किसी को दण्ड देने की सामर्थ्य रखता हो अपितु बलवान वो है जो किसी को क्षमा करने की सामर्थ्य रखता हो।
अगर आप किसी को क्षमा करने का साहस रखते हैं तो सच मानिये कि आप एक शक्तिशाली सम्पदा के धनी हैं और इसी कारण आप सबके प्रिय बनते हो। आजकल परिवारों में अशांति और क्लेश का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हमारे जीवन से और जुबान से क्षमा नाम का गुण लगभग गायब सा हो गया है। 
दूसरों को क्षमा करने की आदत डाल लो, जीवन की कुछ समस्याओं से बच जाओगे। निश्चित ही अगर आप जीवन में क्षमा करना सीख जाते हैं तो आपके कई झंझटों का स्वत: निदान हो जाता है।