Wednesday 11 January 2017

क्यों जरुरी है पूजा के साथ भगवान की आरती..

आरती का महत्व..


आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथसंगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।
सामान्यतः पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।[1]
आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे ३, ५ या ७) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं।[2] आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्कहृदय, दोनों कंधेहाथ व घुटने) से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।[1]
आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे ३, ५ या ७) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं।[2] आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्कहृदय, दोनों कंधेहाथ व घुटने) से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।[1]



तीनों गुणों की धूप जला कर उसमें जो व्यापक ब्रह्म की सत्ता है उसकी फैली हुई सुगन्ध का अनुभव करना चाहिये और ज्ञान का दीप सँजोकर उसी के प्रकाश में भगवान के चम चम चमकते आभूषण और छबि छलकते अङ्ग की झिलमिल जगमगाहट का दर्शन करके आनन्दित होना चाहिये । आरती में पाँच वस्तुएँ रहती हैं । पृथ्वी की गन्ध , जल की स्नेह धारा -- घी , आग की लौ , वायु का हिलना , आकाश की ध्वनि । सम्पूर्ण संसार से भगवान की आरती होती है । वैसे ही अपने देह का दीपक , जीवन का घी , प्राण की बाती और आत्मा की लौ सँजोकर भगवान के इशारे पर नाचना - यही आरती है । इस सच्ची आरती के करने पर संसार का बन्धन छूट जाता है और जीव को भगवान के दर्शन होने लगते हैं...जय श्रीराधे

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