Tuesday 31 January 2017

जानिए क्या भगवान कृष्ण बालब्रह्मचारी हैं...

बाल ब्रह्मचारी श्रीकृष्ण

एक बार सभी गोपियों ने मिलकर प्रेमपूर्वक अपने हाथ से सुन्दर-सुन्दर पकवान बनाकर श्रीकृष्ण को खिलाने का निश्चय किया। सबने विविध प्रकार के सुस्वादु व्यंजन बनाए और यमुनातट पर श्रीकृष्ण के पास पहुंचकर प्रार्थना करने लगीं–’हे श्यामसुन्दर!  हमारे हाथों से बने हुए स्वादिष्ट भोजन का आस्वादन कीजिए। स्वयं संतुष्ट होकर हम सबके मन को भी आनन्द प्रदान करें।’
श्रीकृष्ण ने कहा–’गोपियो! आज तो मैं नन्दबाबा के साथ भोजन करके आ रहा हूँ। पेट में तिलमात्र भी स्थान नहीं है। अत: मैं भोजन नहीं कर सकूंगा। यदि तुम लोग मुझे संतुष्ट करना चाहती हो तो यह भोजन किसी साधु या ब्राह्मण को खिला दो।’ प्रेमस्वरूपा गोपियां अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थीं। अत: वे बोलीं–’हम लोग किस साधु या ब्राह्मण को यह भोजन करा दें, यह आदेश भी आप ही दीजिए।’
आज्ञाकारिणी गोपियों की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा–’यमुना के दूसरे तट पर दुर्वासा मुनि विराज रहे हैं, तुम लोग उन्हीं को यह भोजन खिला दो।’ गोपियों ने कहा–’यमुनाजी पूर्ण वेग से प्रवाहित हैं। वहां कोई नौका नहीं है, जिस पर बैठकर हमलोग उस पार जा सकें। भोजन लेकर जल का स्पर्श किए बिना हम लोग उस पार भला कैसे जा सकती हैं।’
श्रीकृष्ण बोले–’जल का स्पर्श किए बिना सहज में ही उस पार जाया जा सकता है।’ गोपियों ने प्रश्न किया–’वह कैसे?’ श्रीकृष्ण ने बतलाया–’तुम लोग जाकर श्रीयमुनाजी से कहो–’यदि कृष्ण सदा का बालब्रह्मचारी हो तो तुम उस पार जाने के लिए हमें मार्ग दे दो। बस, इतना कहते ही तुम्हारा मार्ग सहज हो जाएगा।’
श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर गोपियां खिलखिलाकर हँस पड़ी। रास रचाने वाले श्रीकृष्ण की इस बात पर उन्हें आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्हें अपने प्रियतम पर पूर्ण विश्वास था। वे उनके कथनानुसार श्रीयमुनाजी से प्रार्थना करने लगीं। यमुनाजी का प्रवाह तुरन्त रुक गया और बीच में सुन्दर मार्ग दिखायी पड़ा। गोपियां प्रसन्नतापूर्वक उस पार चली गईं।
दुर्वासा मुनि के आश्रम में पहुंचकर गोपियों ने उन्हें श्रद्धा से प्रेमपूर्वक भोजन कराया। पचासों थाल भोजन करने के बाद मुनि ने गोपियों को आशीर्वाद देकर विदा किया। गोपियों ने देखा–यमुनाजल पूर्ववत् वेग से बह रहा है। जिस मार्ग से वह इस पार आईं थीं, वह ओझल हो गया है। वे अब किस प्रकार उस पार जाएं। इस चिन्ता में वह खड़ी रह गईं।
दुर्वासा मुनि ने पूछा–’गोपियो! तुम सब चिन्तित क्यों खड़ी हो? तुम्हें अब अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए।’ गोपियों ने कहा–’महाराज! पार जाने का कोई साधन नहीं है। आप कृपा करके मार्ग बतलाइए कि बिना जल का स्पर्श किए हुए हम सब उस पार पहुंच जाएं।’ दुर्वासा मुनि बोले–’देवियो! जिस रीति से आप लोग आयीं थीं, उसी प्रकार चली भी जाओ। यमुना से जाकर कहो कि यदि दुर्वासा मुनि सदा निराहारी ही रहे हों तो आप हमें मार्ग दे दें।’
अनेक प्रकार के रास रचाने व लीला करने वाले श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और थोड़ी देर पहले ही पचासों थाल भोजन आत्मसात् कर जाने वाले दुर्वासा सदा के निराहारी! यह कैसा आश्चर्य? गोपियां बोलीं–’श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी कैसे? और आपने अभी-अभी इतना भोजन किया है, फिर आप निराहारी कैसे हुए? कृपया स्पष्ट कीजिए।’
दुर्वासा मुनि ने कहा–’हे गोपियो!  मैं शब्दादिक गुणों से तथा आकाशादिक पंचमहाभूतों से भिन्न हूँ और उसके अंदर भी हूँ। ये आकाशादि मुझे नहीं जानते। वे मेरे अंतर में भी हैं और बाह्य में भी। मैं सर्वसंगरहित आत्मा हूँ, तो फिर किस प्रकार भोक्ता हो सकता हूँ। व्यवहार दशा में ही मन विषयों को ग्रहण करता है, किन्तु परमार्थ दशा में जब सर्वत्र आत्मा है, तब मन किस विषय का मनन करे। किस विषय में मन लिप्त हो। श्रीकृष्ण भी तीनों गुणों से रहित हैं। जो इच्छा से विषयों का सेवन करे, वह कामी है, जो इच्छारहित होकर अथवा इच्छा के पूर्ण अभाव से विषयों का सेवन करता है, वह सदा ही अकामी है, सदा ही निष्काम है, सदा ही ब्रह्मचारी है, सदा ही निराहारी है। जो परमात्मा को अर्पण करके विषयों को क्षुद्रवत् जान करके अभाव से भोगता है, अभाव से ही भोजन करता है–वह सदा ब्रह्मचारी और सदैव निराहारी है।’
दुर्वासा मुनि के वचन सुनकर गोपियों की शंका का समाधान हो गया। जिस प्रकार जल का स्पर्श किए बिना वे आईं थीं, उसी प्रकार वापस चली गयीं। श्रीकृष्ण के बालब्रह्मचर्यव्रत को जानकर उनकी निष्ठा और प्रेम अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में और भी दृढ़ हो गया।
ब्रह्मवादियों के अनुसार श्रुतिसार प्रणव के ऊपर अवस्थित अर्धमात्रा ही श्रीकृष्ण हैं, जिनमें विश्व प्रतिष्ठित है। व्रजगोपियों के प्रेम के कारण ही निर्गुण अर्द्धमात्रा का श्रीकृष्णरूप में व्रज में अवतरण हुआ।



जीवन में चुकाना होता है हर चीज का मूल्य...

मार्गदर्शक चिंतन-

जिस प्रकार आप किसी वस्तु को लेने बाजार जाते हो तो उसका एक उचित मूल्य अदा करने पर ही उसे प्राप्त करते हो। इसी प्रकार जीवन में भी हम जो प्राप्त करते हैं सबका कुछ ना कुछ मूल्य चुकाना ही पड़ता है।
विवेकानन्द जी कहा करते थे कि महान त्याग के बिना महान लक्ष्य को पाना संभव नहीं। अगर आपके जीवन का लक्ष्य महान है तो यह ख्याल तो भूल जाओ कि बिना त्याग और समर्पण के उसे प्राप्त कर लेंगे।
बड़ा लक्ष्य बड़े त्याग के बिना नहीं मिलता। कई प्रहार सहने के बाद पत्थर के भीतर छिपा हुआ ईश्वर का रूप प्रगट होता है। अगर चोटी तक पहुँचना है तो रास्ते के कंकड़ पत्थरों से होने वाले कष्ट को भूलना ही होगा।

Saturday 28 January 2017

बड़ा त्याग दिलाएगा बड़ा लक्ष्य..

मार्गदर्शक चिंतन-

जिस प्रकार आप किसी वस्तु को लेने बाजार जाते हो तो उसका एक उचित मूल्य अदा करने पर ही उसे प्राप्त करते हो। इसी प्रकार जीवन में भी हम जो प्राप्त करते हैं सबका कुछ ना कुछ मूल्य चुकाना ही पड़ता है।
विवेकानन्द जी कहा करते थे कि महान त्याग के बिना महान लक्ष्य को पाना संभव नहीं। अगर आपके जीवन का लक्ष्य महान है तो यह ख्याल तो भूल जाओ कि बिना त्याग और समर्पण के उसे प्राप्त कर लेंगे।
बड़ा लक्ष्य बड़े त्याग के बिना नहीं मिलता। कई प्रहार सहने के बाद पत्थर के भीतर छिपा हुआ ईश्वर का रूप प्रगट होता है। अगर चोटी तक पहुँचना है तो रास्ते के कंकड़ पत्थरों से होने वाले कष्ट को भूलना ही होगा।

Thursday 26 January 2017

जानिए दुर्गा सप्तशती के गूढ़ रहस्य...

श्री दुर्गा सप्तशती के बारे में कुछ सामान्य जानकारी


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दुर्गा सप्तशती स्वयं में ही एक सिद्ध तंत्रोक्त ग्रन्थ है जिसका प्रत्येक श्लोक स्वयं सिद्ध है।
बहुत से लोग रोजाना या नवरात्री में दुर्गा सप्तशति का पाठ अपनी ऊर्जा और अपनी उर्जित तरंगो को बढ़ने के लिए करते है।
मगर बहुत से उसे केवल एक किताब की तरह पढ़ लेते है मगर उसकी कभी सामान्य जानकारी भी जानना उचित नहीं समझते है।


गा?￰゚ルマ?


दुर्गा सप्तशती के बारे में स्वयं ब्रह्माजी इस पृथ्वी के समस्त पेड़ो की कलम और सातो महासागरों की स्याही भी बनाकर लिखे तो भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता

?
दुर्गासप्तशती का लेखन मार्कंडेय पुराण से लेकर कीया गया है।

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"दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है |

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'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों 
प्रथम चरित्र (महाकाली),
मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा 
उत्तर चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है।

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प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है



प्रथम चरित्र में - काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा,
द्वितीय चरित्र में - लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा
तृतीय चरित्र में- ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं।


नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां 
तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है।

 तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है।
ᄂᄌप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है 
प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय,
मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा तथा 
शेष सभी अध्याय 
उत्तर चरित्र में रखे गये हैं।
ᄂᆰ्प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। 
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¢ᄂᆴमध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा 
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¢ᄂᄂती

सरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। 
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゚マᄏ?¢ᄂワ्ञान गंगा?￰゚ルマ?￰゚ヤヤ
अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का,
'
हृीं' महालक्ष्मी का तथा
'
क्लीं' महाकाली बीज है। 
तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गए है
?￰
゚ルマ?'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। 
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゚ブज्ञान गंगा?￰゚ルマ?￰゚ヤヤ
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¢ᄂᆰ्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। 
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
?
¢ᄂᆴध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। 
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
?
¢ᄂマवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ 
?
¢ᄂᄂत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
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¬ヨᄊअर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। 
इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं।

जानिए जीवन में त्याग करने से क्या मिलता है...

मार्गदर्शक चिंतन

कई बार प्राप्ति से नहीं अपितु आपके त्याग से आपके जीवन का मूल्यांकन किया जाता है। माना कि जीवन में पाने के लिए बहुत कुछ है मगर इतना ही पर्याप्त नहीं क्योंकि यहाँ खोने को भी बहुत कुछ है। बहुत चीजें जीवन में अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहियें मगर बहुत सी चीजें जीवन में त्याग भी देनी चाहियें।
प्राप्ति ही जीवन की चुनौती नहीं, त्याग भी जीवन के लिए एक चुनौती है। अतः जीवन दो शर्तों पर जिया जाना चाहिए। पहली यह कि जीवन में कुछ प्राप्त करना और दूसरी यह कि जीवन में कुछ त्याग करना । 
एक जीवन को पूर्ण करने के लिए आपको प्राप्त करना ही नहीं अपितु त्यागना भी है। और आत्म-चिन्तन के बाद क्या प्राप्त करना है और क्या त्याग करना है ? यह भी आप सहज ही समझ जाओगे।
एक फूल को सबका प्रिय बनने के लिए खुशबू तो लुटानी ही पड़ती है।

Wednesday 25 January 2017

क्या है यज्ञ (हवन) का वैदिक और वैज्ञानिक महत्व..

!!!---: यज्ञ की उपयोगिता :---!!!
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(.) यज्ञ प्रकृति के सन्तुलन को बनाए रखने में सहायक है ।
(.) यह मानसिक प्रदूषण को रोकता है । यह शिवसंकल्प , विचार - शुद्धि , सद्भाव , शान्ति और नीरोगता प्रदान करके मानसिक और बौद्धिक रोगों को दूर करता है ।
(.) सस्वर मन्त्र पाठ से और सामगान से मानसिक शान्ति मिलती है ।
(.) यज्ञ से प्रदूषण दूर होता है और आॅक्सीजन का प्रसार होता है , कार्बन डायआॅक्साइड दूर होता है ।
(.) यज्ञ वायु को शुद्ध करता है । इसके धूएँ से चेचक, क्षय, हैजा आदि रोगों के कीटाणु नष्ट होते हैं ।
(.) भैषज्‍य यज्ञ ऋतुपरिवर्तन के समय होने वाले दूषित तत्त्वों को नष्ट करते हैं ।
(.) यज्ञ से रोगों की चिकित्सा भी की जाती है । जैसे यक्ष्मा (तपेदिक ) , ज्वर , गठिया , कण्ठमाला (गण्डमाला) आदि ।

(.) अथर्ववेद (/११/) के अनुसार मरणासन्न व्यक्ति को यज्ञ से बचाया जा सकता है ।

ज्ञानी के साथ प्रेमी होना क्यों आवश्यक है...

मार्गदर्शक चिंतन..

ज्ञानी होना अच्छी बात है मगर प्रेमी होना उससे भी श्रेष्ठ। आप सम्पूर्ण जगत का ज्ञान रखते हैं यह उतना मूल्यवान नहीं जितना आप सम्पूर्ण जगत को प्रेम करते हैं। राम चरित मानस में आया है कि,
"सोह ना राम प्रेम बिनु ग्यानूज्ञानी होने पर यदि आपको प्रभु चरणों में प्रेम नहीं है तो वह ज्ञान शोभा हीन है। ज्ञानी के लिए जगत में कोई अपना नहीं है प्रेमी के लिए पूरा जगत ही उसका है। ज्ञानी संसार से मुक्त होना चाहता है मगर प्रेमी सारे संसार को कृष्णमय मानकर उसकी सेवा करना चाहता है। 
ज्ञान में जीव परमात्मा को जानता है और प्रेम में परमात्मा जीव को जानते हैं। ज्ञान पुष्प है और प्रेम सुवास है। प्रेम में जियो, प्रेम ही साधना की पूर्णता है। प्रेम ही ज्ञान का शिखर है, योगी ना बन पाओ कोई बात नहीं मगर प्रेमी बन जाओ तो श्रीकृष्ण गोपियों की तरह एक दिन द्वार पर माखन मांगने आ जायेंगे।

Tuesday 24 January 2017

भगवान को ताजे फूल ही क्यों चढ़ाए जाते हैं?

पूजा में फूलों का महत्व..

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हिन्दू धर्म में पूजा-पाठ से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। उन्ही में से एक परंपरा है भगवान को ताजे फूल अर्पित करने की लेकिन भगवान को रोज ताजे फूल ही क्यों चढ़ाए जाते है ?

ये बहुत ही कम लोग जानते हैं कि सुखे फूलों को या मुरझाए फूलों को भगवान के समक्ष रखना शुभ नहीं माना जाता है। ताजे फूलों को पूजा में हमेशा रखा जाता है क्योंकि फूल की खुश्बू और सुन्दरता पूजन करने वाले के मन को सुन्दरता और शांति का एहसास दिलावाती है।
ऐसा माना जाता है कि जब पूजा में इनका उपयोग किया जाता है, तो फूल अद्भुत ऊर्जा का सृजन पूरे घर में करते है और इससे घर में खुशियों का आगमन होता है।
ताजे फूल घर में सजाए जाना वास्तु के दृष्टीकोण से भी सौभाग्य का सूचक माना गया है। जब भगवान के सामने रखे फूल सूखने या मुरझाने लगे, तो इन्हें तुरंत हटा देना चाहिए और इनकी जगह ताजे फूल रख देना चाहिए
क्योंकि ताजे फूल जीवन के प्रतीक है । जबकि सूखे फूल मृत्यु के सुचक है। जो वस्तु मृत्यु का प्रतीक है उसे घर में नहीं रखना चाहिए !

इसलिए कितना भी बड़ा पूजन घर में किया गया हो या किसी बड़े तीर्थस्थल से आप फूल अपने घर में लाएं हो 48 घंटे बाद उसका असर नहीं होता है। फूल का सुप्रभाव खत्म हो जाता है
इसलिए भगवान को हमेशा ताजे फूल ही चढ़ाए जाते हैं।

सफलता के 3 सूत्र...

मार्गदर्शक चिंतन-
जीवन में कोई भी चीज इतनी खतरनाक नहीं जितना भ्रम में और डांवाडोल की स्थिति में रहना है। आदमी स्वयं अनिर्णय की स्थिति में रहकर अपना नुकसान करता है। सही समय पर और सही निर्णय ना लेने के कारण ही व्यक्ति असफल भी होता है।
यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं ? स्वयं के प्रति एक क्षण के लिए नकारात्मक ना सोचें और ना ही निराशा को अपने ऊपर हावी होने दें।
सफ़ल होने के लिए 3 बातें बड़ी आवश्यक हैं। सही फैसले लें, साहसी फैसले लें और सही समय पर लें। आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि प्रयास की अंतिम सीमाओं तक पहुंचा जाए।
ना होगा कभी क्लेश मन को तुम्हारे,जो अपनी बड़ाई से बचते रहोगे।
चढोगे सभी के ह्रदय पर सदा तुम,जो अभिमान गिरि से उतरते रहोगे॥

Monday 23 January 2017

मृत्यु अटल है...पढ़िए रोचक कथा..

मृत्यु का सत्य..
भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठ कर कैलाश पर्वत पर गए।
द्वार पर गरुड़ को छोड़ कर खुद भगवान शिव से मिलने अंदर चले गए।
तब कैलाश की अपूर्व प्राकृतिक शोभा को देख कर गरुड़ मंत्रमुग्ध थे
कि तभी उनकी नजर एक खूबसूरत छोटी सी चिड़िया पर पड़ी।
चिड़िया कुछ इतनी सुंदर थी
कि गरुड़ के सारे विचार उसकी तरफ आकर्षित होने लगे।
उसी समय कैलाश पर यम देव पधारे
और अंदर जाने से पहले उन्होंने उस छोटे से पक्षी को आश्चर्य की द्रष्टि से देखा।
गरुड़ समझ गए उस चिड़िया का अंत निकट है
और यमदेव कैलाश से निकलते ही उसे अपने साथ यमलोक ले जाएँगे।
गरूड़ को दया आ गई।
इतनी छोटी और सुंदर चिड़िया को मरता हुआ नहीं देख सकते थे।
उसे अपने पंजों में दबाया और कैलाश से हजारो कोश दूर एक
जंगल में एक चट्टान के ऊपर छोड़ दियाऔर खुद बापिस कैलाश पर आ गए।
आखिर जब यम बाहर आए
तो
गरुड़ ने पूछ ही लिया कि
उन्होंने उस चिड़िया को इतनी आश्चर्य भरी नजर से क्यों देखा था।
यम देव बोले "गरुड़ जब मैंने
उस चिड़िया को देखा तो मुझे ज्ञात हुआ कि 
वो चिड़िया कुछ ही पल बाद यहाँ से हजारों कोस दूर
एक नाग द्वारा खा ली जाएगी।
मैं सोच रहा था
कि वो इतनी जलदी इतनी दूर कैसे जाएगी,पर अब जब वो यहाँ नहीं है तो निश्चित ही वो मर चुकी होगी।"
गरुड़ समझ गये "मृत्यु टाले नहीं टलती चाहे कितनी भी चतुराई की जाए।"
इसलिए भगवान कृष्ण कहते है:-करता तू वह है, जो तू चाहता है ।
परन्तु होता वह है, जो में चाहता हूँ ।
कर तू वह, जो में चाहता हूँ ।
फिर होगा वह , जो तू चाहेगा ।