कब प्रकट हुईं लक्ष्मी जी की बड़ी बहन अलक्ष्मी ( दरिद्रता, ज्येष्ठादेवी)-
समस्त
देवताओं व राक्षसों ने मन्दराचल
पर्वत को मथानी,
कच्छप
को आधार और शेषनाग को मथानी
की रस्सी बनाकर समुद्रमन्थन
किया। उसके परिणामस्वरूप
क्षीरसागर से सबसे पहले भयंकर
ज्वालाओं से युक्त कालकूट
विष निकला जिसके प्रभाव से
तीनों लोक जलने लगे। भगवान
विष्णु ने लोककल्याण के लिए
शिवजी से प्रार्थना की और
शिवजी ने हलाहल विष को कण्ठ
में धारण कर लिया। पुन:
समुद्र-मंथन
होने पर कामधेनु,
उच्चै:श्रवा
नामक अश्व,
ऐरावत
हाथी,
कौस्तुभ
नामक पद्मरागमणि,
कल्पवृक्ष,
व
अप्सराएं प्रकट हुईं। फिर
लक्ष्मीजी प्रकट हुई। उसके
बाद वारुणी देवी (मदिरा),
चन्द्रमा,
पारिजात,
पांचजन्य
शंख,
तदनन्तर
समुद्र-मंथन
से हाथ में अमृत का कलश लिए
धन्वतरि प्रकट हुए।
श्रीलिंगमहापुराण
के अनुसार समुद्र मंथन में
महाभयंकर विष निकलने के बाद
ज्येष्ठा अशुभ लक्ष्मी उत्पन्न
हुईं फिर विष्णुपत्नी पद्मा
लक्ष्मी प्रकट हुईं। लक्ष्मीजी
से पहले प्रादुर्भूत होने के
कारण अलक्ष्मी ज्येष्ठा कही
गयीं हैं।
अलक्ष्मी (दरिद्रा, ज्येष्ठादेवी)
ततो ज्येष्ठा समुत्पन्ना काषायाम्बरधारिणी।
पिंगकेशा रक्तनेत्रा कूष्माण्डसदृशस्तनी।।
अतिवृद्धा दन्तहीना ललज्जिह्वा घटोदरी।
यां दृष्ट्वैव च लोकोऽयं समुद्विग्न: प्रजायते।।
समुद्रमंथन
से काषायवस्त्रधारिणी,
पिंगल
केशवाली,
लाल
नेत्रों वाली,
कूष्माण्ड
के समान स्तनवाली,
अत्यन्त
बूढ़ी,
दन्तहीन
तथा चंचल जिह्वा को बाहर निकाले
हुए,
घट
के समान पेट वाली एक ऐसी ज्येष्ठा
नाम वाली देवी उत्पन्न हुईं,
जिन्हें
देखकर सारा संसार घबरा गया।
क्षीरोदतनया, पद्मा लक्ष्मी
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी।
गम्भीरावर्तनाभिस्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।।
या लक्ष्मीर्दिव्यरूपैर्मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:।
सा नित्यं पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता।।
उसके
बाद तिरछे नेत्रों वाली,
सुन्दरता
की खान,
पतली
कमर वाली,
सुवर्ण
के समान रंग वाली,
क्षीरसमुद्र
के समान श्वेत साड़ी पहने हुए
तथा दोनों हाथों में कमल की
माला लिए,
खिले
हुए कमल के आसन पर विराजमान,
भगवान
की नित्य शक्ति ‘क्षीरोदतनया’
लक्ष्मी उत्पन्न हुईं। उनके
सौन्दर्य,
औदार्य,
यौवन,
रूप-रंग
और महिमा देखकर देवता और दैत्य
दोनों ही मोहित हो गए।
नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम:।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्म्यै नमो नम:।।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
लक्ष्मीजी
ने भगवान विष्णु के साथ अपने
विवाह से पहले कहा कि बड़ी बहन
का विवाह हुए बिना छोटी बहन
का विवाह शास्त्रसम्मत नहीं
है। तब भगवान
विष्णु ने दु:सह
ऋषि को समझा-बुझाकर
ज्येष्ठा से विवाह करने के
लिए मना लिया। कार्तिकमास की
द्वादशी तिथि को पिता समुद्र
ने दरिद्रादेवी का कन्यादान
कर दिया। विवाह
के बाद दु:सह
ऋषि जब दरिद्रा को लेकर अपने
आश्रम पर आए तो उनके आश्रम में
वेदमन्त्र गुंजायमान हो रहे
थे। वहां से ज्येष्ठा दोनों
कान बंद कर भागने लगी। यह देखकर
दु:सह
मुनि उद्विग्न हो गये क्योंकि
उन दिनों सब जगह धर्म की चर्चा
और पुण्यकार्य हुआ करते थे।
सब जगह वेदमन्त्रों और भगवान
के गुणगान से बचकर भागते-भागते
दरिद्रा थक गई। तब दरिद्रा
ने मुनि से कहा–’जहां
वेदध्वनि,
अतिथि-सत्कार,
यज्ञ-दान,
भस्म
लगाए लोग आदि हों,
वहां
मेरा निवास नहीं हो सकता। अत:
आप
मुझे किसी ऐसे स्थान पर ले
चलिए जहां इन कार्यों के विपरीत
कार्य होता हो।’
दु:सह
मुनि उसे निर्जन वन में ले गए।
वन में दु:सह
मुनि को मार्कण्डेय ऋषि मिले।
दु:सह
मुनि ने मार्कण्डेय ऋषि से
पूछा कि ‘इस
भार्या के साथ मैं कहां रहूं
और कहां न रहूं?’
दरिद्रा के प्रवेश करने के स्थान
मार्कण्डेय
ऋषि ने दु:सह
मुनि से कहा–*
जिसके
यहां शिवलिंग का पूजन न होता
हो तथा जिसके यहां जप आदि न
होते हों बल्कि रुद्रभक्ति
की निन्दा होती हो,
वहीं
पर तुम निर्भय होकर घुस जाना।
लिंगार्चनं यस्य नास्ति यस्य नास्ति जपादिकम्।
रुद्रभक्तिर्विनिन्दा च तत्रैव विश निर्भय:।।
जहां
*
पति-पत्नी
परस्पर झगड़ा करते हों,
* घर
में रात्रि के समय लोग झगड़ा
करते हों,
* जो
लोग बच्चों को न देकर स्वयं
भोज्य पदार्थ खा लेते हों,
* जो
स्नान नहीं करते,
दांत-मुख
साफ नहीं करते,
* गंदे
कपड़े पहनते,
संध्याकाल
में सोते व खाते हों,
* जुआ
खेलते हों,
* ब्राह्मण
के धन का हरण करते हों,
* परायी
स्त्री से सम्बन्ध रखते हों,
* हाथ-पैर
न धोते हों,
उस
घर में तुम दोनों घुस जाओ।
दरिद्रा के प्रवेश न करने के स्थान
मार्कण्डेयजी
ने दु:सह
मुनि को कहा–*
जहां
नारायण व रुद्र के भक्त हों,
* भस्म
लगाने वाले लोग हों,
* भगवान
का कीर्तन होता हो,
* घर
में भगवान की मूर्ति व गाएं
हों उस घर में तुम दोनों मत
घुसना। *
जो
लोग नित्य वेदाभ्यास में
संलग्न हों,
* नित्यकर्म
में तत्पर हों तथा वासुदेव
की पूजा में रत हों,
उन्हें
दूर से ही त्याग देना–
वेदाभ्यासरता नित्यं नित्यकर्मपरायणा:।
वासुदेवार्चनरता दूरतस्तान् विसर्जयेत्।।
तथा
*
जो
लोग वैदिकों,
ब्राह्मणों,
गौओं,
गुरुओं,
अतिथियों
तथा रुद्रभक्तों की नित्य
पूजा करते हैं,
उनके
पास मत जाना।
यह
कहकर मार्कण्डेय ऋषि चले गए।
तब दु:सह
मुनि ने दरिद्रा को एक पीपल
के मूल में बिठाकर कहा कि मैं
तुम्हारे लिए रसातल जाकर
उपयुक्त आवास की खोज करता हूँ।
दरिद्रा ने कहा–’तब तक मैं
खाऊंगी क्या?’
मुनि
ने कहा–’तुम्हें प्रवेश के
स्थान तो मालूम हैं,
वहां
घुसकर खा-पी
लेना। लेकिन जो स्त्री तुम्हारी
पुष्प व धूप से पूजा करती हो,
उसके
घर में मत घुसना।’
यह
कहकर मुनि बिल मार्ग से रसातल
में चले गए। लेकिन बहुत खोजने
पर भी उन्हें कोई स्थान नहीं
मिला। कई दिनों तक पीपल के मूल
में बैठी रहने से भूख-प्यास
से व्याकुल होकर दरिद्रा रोने
लगीं। उनके रुदन से सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच
गया। उनके रोने की आवाज को जब
उनकी छोटी बहन लक्ष्मीजी ने
सुना तो वे भगवान विष्णु के
साथ उनसे मिलने आईं। दरिद्रा
ने भगवान विष्णु से कहा–’मेरे
पति रसातल में चले गए है,
मैं
अनाथ हो गई हूँ,
मेरी
जीविका का प्रबन्ध कर दीजिए।’
भगवान
विष्णु ने कहा–’हे
दरिद्रे!
जो
माता पार्वती,
शंकरजी
व मेरे भक्तों की निन्दा करते
हैं;
शंकरजी
की निन्दा कर मेरी पूजा करते
हैं,
उनके
धन पर तुम्हारा अधिकार है।
तुम सदा पीपल (अश्वत्थ)
वृक्ष
के मूल में निवास करो। तुमसे
मिलने के लिए मैं लक्ष्मी के
साथ प्रत्येक शनिवार को यहां
आऊंगा और उस दिन जो अश्वत्थ
वृक्ष का पूजन करेगा,
मैं
उसके घर लक्ष्मी के साथ निवास
करुंगा।’ उस
दिन से दरिद्रादेवी पीपल के
नीचे निवास करने लगीं।
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