‘श्री-सूक्त’- अर्थ सहित..
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१।।
हे
जातवेदा (सर्वज्ञ)
अग्निदेव!
सुवर्ण
के समान पीले रंगवाली,
किंचित
हरितवर्ण वाली,
सोने
और चांदी के हार पहनने वाली,
चांदी
के समान धवल पुष्पों की माला
धारण करने वाली,
चन्द्र
के समान प्रसन्नकान्ति,
स्वर्णमयी
लक्ष्मीदेवी को मेरे लिए आवाहन
करो (बुलाइए)।
तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२।।
हे
अग्निदेव!
आप
उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी
को,
जिनका
कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके
आगमन से मैं सोना,
गौ,
घोड़े
तथा पुत्रादि को प्राप्त
करुंगा,
मेरे
लिए आवाहन करो।
अश्वपूर्वां रथमध्यां, हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३।।
जिन
देवी के आगे घोड़े तथा उनके
पीछे रथ रहते हैं अथवा जिनके
सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए
हैं,
ऐसे
रथ में बैठी हुई,
हाथियों
के निनाद से प्रमुदित होने
वाली,
देदीप्यमान
एवं समस्तजनों को आश्रय देने
वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने
सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्यमान
व सबकी आश्रयदाता वह लक्ष्मी
मेरे घर में सर्वदा निवास
करें।
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।४।।
जो
साक्षात् ब्रह्मरूपा,
मन्द-मन्द
मुसकराने वाली,
जो
चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत
हैं,
दया
से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र
से प्रादुर्भूत (प्रकट)
होने
के कारण आर्द्र शरीर होती हुई
भी तेजोमयी हैं,
स्वयं
पूर्णकामा होने के कारण भक्तों
के नाना प्रकार के मनोरथों
को पूर्ण करने वाली,
भक्तानुग्रहकारिणी,
कमल
के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा
हैं,
उन
लक्ष्मीदेवी का मैं यहां आवाहन
करता हूँ।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।५।।
मैं
चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली,
सुन्दर,
द्युतिशालिनी,
यश
से दीप्तिमती,
स्वर्गलोक
में देवगणों के द्वारा पूजिता,
उदारशीला,
पद्महस्ता,
सभी
की रक्षा करने वाली एवं
आश्रयदात्री लक्ष्मीदेवी
की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा
दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको
शरण्य के रूप में वरण करता हूँ
अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।
आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।।
हे
सूर्य के समान कान्ति वाली!
तुम्हारे
ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ
मंगलमय बिना फूल के फल देने
वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न
हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल
हमारे बाहरी और भीतरी (मन
व संसार के)
दारिद्रय
को दूर करें।
उपैतु मां दैवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७।।
हे
लक्ष्मी!
देवसखा
(महादेव
के सखा)
कुबेर
और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात्
चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति
की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त
हों। अर्थात् मुझे धन और यश
की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र
में–देश में उत्पन्न हुआ हूँ,
मुझे
कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।८।।
लक्ष्मी
की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी
(दरिद्रता
की अधिष्ठात्री देवी)
का,
जो
क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय
रहती हैं,
मैं
नाश चाहता हूँ। देवि!
मेरे
घर से सब प्रकार के दारिद्रय
और अमंगल को दूर करो।
गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोप ह्वये श्रियम्।।९।।
सुगन्धित
पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त
करने योग्य,
किसी
से भी दबने योग्य नहीं,
धन-धान्य
से सर्वदा पूर्ण,
गौ-अश्वादि
पशुओं की समृद्धि देने वाली,
समस्त
प्राणियों की स्वामिनी तथा
संसार प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी
का मैं यहां–अपने घर में आवाहन
करता हूँ।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०।।
हे
लक्ष्मी देवी!
आपके
प्रभाव से मन की कामनाएं और
संकल्प की सिद्धि एवं वाणी
की सत्यता मुझे प्राप्त हों;
मैं
गौ आदि पशुओं के दूध,
दही,
यव
आदि एवं विभिन्न अन्नों के
रूप (भक्ष्य,
भोज्य,
चोष्य,
लेह्य,
चतुर्विध
भोज्य पदार्थों)
को
प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और
यश मुझमें आश्रय लें अर्थात्
मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान
बनूँ।
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।११।।
लक्ष्मी
के पुत्र कर्दम की हम संतान
हैं। कर्दम ऋषि!
आप
हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात्
कर्दम ऋषि की कृपा होने पर
लक्ष्मी को मेरे यहां रहना
ही होगा)
मेरे
घर में लक्ष्मी निवास करें।
पद्मों की माला धारण करने वाली
सम्पूर्ण संसार की माता
लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल
में स्थापित कराओ।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२।।
समुद्र-मन्थन
द्वारा चौदह रत्नों के साथ
लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ
है। इसी अभिप्राय में कहा गया
है कि वरुण देवता स्निग्ध
पदार्थों की सृष्टि करें।
पदार्थों में सुन्दरता ही
लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द,
कर्दम,
चिक्लीत
और श्रीत–ये चार पुत्र हैं।
इनमें चिक्लीत से प्रार्थना
की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र
चिक्लीत!
आप
भी मेरे घर में वास करें और
दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता
अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे
कुल में निवास करायें।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१३।।
हे
अग्निदेव!
हाथियों
के शुण्डाग्र से अभिषिक्त
अतएव आर्द्र शरीर वाली,
पुष्टि
को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा,
पीतवर्णा,
पद्मों
(कमल)
की
माला धारण करने वाली,
चन्द्रमा
के समान शुभ्र कान्ति से युक्त,
स्वर्णमयी
लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में
आवाहन करें।
आर्द्रां य करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।१४।।
हे
अग्निदेव!
जो
दुष्टों का निग्रह करने वाली
होने पर भी कोमल स्वभाव की
हैं,
जो
मंगलदायिनी,
अवलम्बन
प्रदान करने वाली यष्टिरूपा
हैं (जिस
प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ
पुरुष चल नहीं सकता,
उसी
प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार
का कोई भी कार्य ठीक प्रकार
नहीं हो पाता),
सुन्दर
वर्णवाली,
सुवर्णमालाधारिणी,
सूर्यस्वरूपा
तथा हिरण्यमयी हैं (जिस
प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि
द्वारा जगत का पालन-पोषण
करता है,
उसी
प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन
के द्वारा संसार का पालन-पोषण
करती है),
उन
प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का
मेरे लिए आवाहन करें।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।१५।।
हे
अग्निदेव!
कभी
नष्ट न होने वाली उन स्थिर
लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन
करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र
नहीं जाने वाली हों,
जिनके
आगमन से बहुत-सा
धन,
उत्तम
ऐश्वर्य,
गौएं,
दासियां,
अश्व
और पुत्रादि को हम प्राप्त
करें।
य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत्।।१६।।
जिसे
लक्ष्मी की कामना हो,
वह
प्रतिदिन पवित्र और संयमशील
होकर अग्नि में घी की आहुतियां
दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं
वाले–’श्री-सूक्त’
का निरन्तर पाठ करे।
श्री-सूक्त
में पन्द्रह ऋचाएं हैं।
माहात्म्य सहित सोलह ऋचाएं
मानी गयी हैं क्योंकि किसी
भी स्तोत्र का बिना माहात्म्य
के पाठ करने से फल प्राप्ति
नहीं होती। अत:
सोलह
ऋचाओं का पाठ करना चाहिए।
ऋग्वेद में वर्णित श्री-सूक्त
के द्वारा जो भी श्रद्धापूर्वक
लक्ष्मी का पूजन करता है,
वह
सात जन्मों तक निर्धन नहीं
होता।
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