Tuesday 25 October 2016

क्यों कहा जाता है भगवान कृष्ण को बालबह्मचारी..

बालब्रह्मचारी श्रीकृष्ण

एक बार सभी गोपियों ने मिलकर प्रेमपूर्वक अपने हाथ से सुन्दर-सुन्दर पकवान बनाकर श्रीकृष्ण को खिलाने का निश्चय किया। सबने विविध प्रकार के सुस्वादु व्यंजन बनाए और यमुनातट पर श्रीकृष्ण के पास पहुंचकर प्रार्थना करने लगीं–’हे श्यामसुन्दर!  हमारे हाथों से बने हुए स्वादिष्ट भोजन का आस्वादन कीजिए। स्वयं संतुष्ट होकर हम सबके मन को भी आनन्द प्रदान करें।’
श्रीकृष्ण ने कहा–’गोपियो! आज तो मैं नन्दबाबा के साथ भोजन करके आ रहा हूँ। पेट में तिलमात्र भी स्थान नहीं है। अत: मैं भोजन नहीं कर सकूंगा। यदि तुम लोग मुझे संतुष्ट करना चाहती हो तो यह भोजन किसी साधु या ब्राह्मण को खिला दो।’ प्रेमस्वरूपा गोपियां अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थीं। अत: वे बोलीं–’हम लोग किस साधु या ब्राह्मण को यह भोजन करा दें, यह आदेश भी आप ही दीजिए।’
आज्ञाकारिणी गोपियों की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा–’यमुना के दूसरे तट पर दुर्वासा मुनि विराज रहे हैं, तुम लोग उन्हीं को यह भोजन खिला दो।’ गोपियों ने कहा–’यमुनाजी पूर्ण वेग से प्रवाहित हैं। वहां कोई नौका नहीं है, जिस पर बैठकर हमलोग उस पार जा सकें। भोजन लेकर जल का स्पर्श किए बिना हम लोग उस पार भला कैसे जा सकती हैं।’
श्रीकृष्ण बोले–’जल का स्पर्श किए बिना सहज में ही उस पार जाया जा सकता है।’ गोपियों ने प्रश्न किया–’वह कैसे?’ श्रीकृष्ण ने बतलाया–’तुम लोग जाकर श्रीयमुनाजी से कहो–’यदि कृष्ण सदा का बालब्रह्मचारी हो तो तुम उस पार जाने के लिए हमें मार्ग दे दो। बस, इतना कहते ही तुम्हारा मार्ग सहज हो जाएगा।’
श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर गोपियां खिलखिलाकर हँस पड़ी। रास रचाने वाले श्रीकृष्ण की इस बात पर उन्हें आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्हें अपने प्रियतम पर पूर्ण विश्वास था। वे उनके कथनानुसार श्रीयमुनाजी से प्रार्थना करने लगीं। यमुनाजी का प्रवाह तुरन्त रुक गया और बीच में सुन्दर मार्ग दिखायी पड़ा। गोपियां प्रसन्नतापूर्वक उस पार चली गईं।
दुर्वासा मुनि के आश्रम में पहुंचकर गोपियों ने उन्हें श्रद्धा से प्रेमपूर्वक भोजन कराया। पचासों थाल भोजन करने के बाद मुनि ने गोपियों को आशीर्वाद देकर विदा किया। गोपियों ने देखा–यमुनाजल पूर्ववत् वेग से बह रहा है। जिस मार्ग से वह इस पार आईं थीं, वह ओझल हो गया है। वे अब किस प्रकार उस पार जाएं। इस चिन्ता में वह खड़ी रह गईं।
दुर्वासा मुनि ने पूछा–’गोपियो! तुम सब चिन्तित क्यों खड़ी हो? तुम्हें अब अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए।’ गोपियों ने कहा–’महाराज! पार जाने का कोई साधन नहीं है। आप कृपा करके मार्ग बतलाइए कि बिना जल का स्पर्श किए हुए हम सब उस पार पहुंच जाएं।’ दुर्वासा मुनि बोले–’देवियो! जिस रीति से आप लोग आयीं थीं, उसी प्रकार चली भी जाओ। यमुना से जाकर कहो कि यदि दुर्वासा मुनि सदा निराहारी ही रहे हों तो आप हमें मार्ग दे दें।’
अनेक प्रकार के रास रचाने व लीला करने वाले श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और थोड़ी देर पहले ही पचासों थाल भोजन आत्मसात् कर जाने वाले दुर्वासा सदा के निराहारी! यह कैसा आश्चर्य? गोपियां बोलीं–’श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी कैसे? और आपने अभी-अभी इतना भोजन किया है, फिर आप निराहारी कैसे हुए? कृपया स्पष्ट कीजिए।’
दुर्वासा मुनि ने कहा–’हे गोपियो!  मैं शब्दादिक गुणों से तथा आकाशादिक पंचमहाभूतों से भिन्न हूँ और उसके अंदर भी हूँ। ये आकाशादि मुझे नहीं जानते। वे मेरे अंतर में भी हैं और बाह्य में भी। मैं सर्वसंगरहित आत्मा हूँ, तो फिर किस प्रकार भोक्ता हो सकता हूँ। व्यवहार दशा में ही मन विषयों को ग्रहण करता है, किन्तु परमार्थ दशा में जब सर्वत्र आत्मा है, तब मन किस विषय का मनन करे। किस विषय में मन लिप्त हो। श्रीकृष्ण भी तीनों गुणों से रहित हैं। जो इच्छा से विषयों का सेवन करे, वह कामी है, जो इच्छारहित होकर अथवा इच्छा के पूर्ण अभाव से विषयों का सेवन करता है, वह सदा ही अकामी है, सदा ही निष्काम है, सदा ही ब्रह्मचारी है, सदा ही निराहारी है। जो परमात्मा को अर्पण करके विषयों को क्षुद्रवत् जान करके अभाव से भोगता है, अभाव से ही भोजन करता है–वह सदा ब्रह्मचारी और सदैव निराहारी है।’
दुर्वासा मुनि के वचन सुनकर गोपियों की शंका का समाधान हो गया। जिस प्रकार जल का स्पर्श किए बिना वे आईं थीं, उसी प्रकार वापस चली गयीं। श्रीकृष्ण के बालब्रह्मचर्यव्रत को जानकर उनकी निष्ठा और प्रेम अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में और भी दृढ़ हो गया।

ब्रह्मवादियों के अनुसार श्रुतिसार प्रणव के ऊपर अवस्थित अर्धमात्रा ही श्रीकृष्ण हैं, जिनमें विश्व प्रतिष्ठित है। व्रजगोपियों के प्रेम के कारण ही निर्गुण अर्द्धमात्रा का श्रीकृष्णरूप में व्रज में अवतरण हुआ।

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