मार्गदर्शक चिंतन-
अनन्यता शब्द आपने जरूर सुना होगा। इसका अर्थ है अपने आराध्य देव के सिवा किसी और से किंचित अपेक्षा ना रखना। आपने उपास्य देव के चरणों में पूर्ण निष्ठ और पूर्ण समर्पण ही वास्तव में अनन्यता है।
एक
भरोसो एक बल ,
एक
आस विश्वास।
समय
कैसा भी हो,
सुख-
दुःख,
सम्पत्ति,
विपत्ति
जो भी हो हमें धैर्य रखना चाहिए।
धर्म के साथ धैर्य जरूरी है।
प्रभु पर भरोसा ही भजन है।
अनन्यता का अर्थ है अन्य की
ओर ना ताकना।
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जो मेरे प्रति अनन्य भाव से शरणागत हो चुके हैं। मै उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात जो प्राप्त नहीं है वो दे देता हूँ और जो प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। अनन्यता का मतलव दूसरे देवों की उपेक्षा करना नहीं अपितु उनसे अपेक्षा ना रखना है।
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जो मेरे प्रति अनन्य भाव से शरणागत हो चुके हैं। मै उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात जो प्राप्त नहीं है वो दे देता हूँ और जो प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। अनन्यता का मतलव दूसरे देवों की उपेक्षा करना नहीं अपितु उनसे अपेक्षा ना रखना है।