Monday 27 February 2017

ऐसा धाम जहां आज भी होता है महारास..

जानिए वृंदावन धाम की महिमा...जय श्रीराधे..

विश्व के सभी स्थानों में #‎श्रीधाम‬ वृन्दावन का सर्वोच्च स्थान माना गया है ।
वृन्दावन का आध्यात्म अर्थ है -
"
वृन्दाया तुलस्या वनं वृन्दावनं "तुलसी का विषेश वन होने के कारण इसे वृन्दावन कहते हैं ।
वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ #‎प्रिया‬-प्रियतम ने अपनी दिव्य लीलायें की हैं । इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े-बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते। ब्रह्मा जी का ज्ञान भी यहाँ के प्रेम के आगे फ़ीका पड़ जाता है ।
वृन्दावन रसिकों की राजधानी है । यहाँ के राजा श्यामसुन्दरऔर महारानी श्री राधिका जी हैं । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण रसमय है ।
सभी धामों से ऊपर है ब्रज धाम और सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है श्री वृन्दावन।
इसकी महिमा का बखान करता एक प्रसंग :--भगवान नारायण ने प्रयाग को तीर्थों का राजा बना दिया। अतः सभी तीर्थ प्रयागराज को कर देने आते थे ।
एक बार नारद जी ने प्रयागराज से पूछा :- क्या वृन्दावन भी आपको कर देने आता है ..????तीर्थराज ने नकारात्मक उत्तर दिया ।
तो नारद जी बोले:- फ़िर आप तीर्थराज कैसे हुए ।
इस बात से दुखी होकर तीर्थराज भगवान के पास पहुँचे । भगवान ने प्रयागराज के आने का कारण पूछा ।
तीर्थराज बोले :- प्रभु, आपने मुझे सभी #‎तीर्थों‬ का राजा बनाया है । सभी तीर्थ मुझे कर देने आते हैं, लेकिन श्री वृन्दावन कभी कर देने नहीं आये । अतः मेरा तीर्थराज होना अनुचित है ।
भगवान ने प्रयागराज से कहा :- तीर्थराज, मैंने तुम्हें सभी तीर्थों का राजा बनाया है । अपने निज गृह का नहीं । वृन्दावन मेरा घर है । यह मेरी प्रिया श्री किशोरी जी की विहार स्थली है । वहाँ की अधिपति तो वे ही हैं । मैं भी सदा वहीं निवास करता हूँ। वह तो आप से भी ऊपर है ।
एक बार अयोध्या जाओ,दो बार द्वारिका,तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे,चार बार चित्रकूट,नौ बार नासिक,बार-बार जाके बद्रिनाथ घूम आओगे,कोटि बार काशी, केदारनाथ रामेश्वर, गया-जगन्नाथ 
चाहे जहाँ जाओगेहोंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे ।
कोई भी अनुभव कर सकता है कि वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही एक अदृश्य भाव, एक अदृश्य शक्ति हृदय स्थल के अन्दर प्रवेश करती है और वृन्दावन की परिधि छोड़ते ही यह दूर हो जाती है ।
इसमें जो वास करता है, भगवान की गोदी में ही वास करता है । परन्तु श्री राधारानी की कृपा से ही यह गोदी प्राप्त होती है ।
("
कृपयति यदि राधा बाधिता शेष बाधा ")वृहद्गौतमीयतन्त्र में भगवान ने अपने श्रीमुख से यहाँ तक कहा है कि यह रमणीय वृन्दावन मेरा गोलोक धाम ही है ।
("
इदं वृन्दावनं रम्यं मम धामैव केवलम ")तो ब्रज की महारानी श्री राधारानी हम पर ऐसी कृपा करें कि हमें श्रीवृन्दावन धाम का वास मिले ।
‪#‎श्रीवृन्दावन‬ धाम मे वास प्राप्त करने के लिए सदैव सतत जपिए ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे!हरे राम हरे राम राम हरे हरे!!


क्या है सच्चा सुख..कैसे मिलेगा सच्चा सुख..

मार्गदर्शक चिंतन

श्रीमद भागवत जी में पिता आत्मदेव को उपदेश देते समय गोकर्ण जी ने जो ज्ञान दिया है, वह बड़ा अद्भुत है। संसार में प्रत्येक प्राणी सुख की ही तलाश में है। वह चाहे पद- धन-प्रतिष्ठा या कुछ और भी हो सबके मूल में सुख की ही कामना है।
गोकर्ण जी कहते हैं पिताजी दो तरह के लोग ही वास्तव में सुख का अनुभव कर सकते हैं। पहला जो विरक्त है। यहाँ विरक्तता का अर्थ सब कुछ छोड़कर जंगल में चले जाना नहीं है। विरक्तता का अर्थ है किसी से किसी भी प्रकार की अपेक्षा ना रखना।
हमें कोई नहीं रुलाता, हमारी चाह हमें रुलाती है। हमें कोई परेशान नहीं करता हम अपनी आसक्ति और इच्छा के कारण परेशान रहते हैं। जिस दिन आसक्ति का त्याग कर दिया, फिर कोई हमें दुःखी नहीं कर सकता। आशा छोड़ कर देखो तो एक बार जिसके कारण आप बार दुःखी हो रहे हो।

Sunday 26 February 2017

जानिए 24 देवताओं के गायत्री मंत्र और जाप करने की विधि..

चौबीस देवताओं के गायत्री मन्त्र

. गणेश गायत्री–ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।
. नृसिंह गायत्री–ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्।
. विष्णु गायत्री–ॐ त्रैलोक्यमोहनाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
. शिव गायत्री–ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।
. कृष्ण गायत्री–ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्।
. राधा गायत्री–ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि। तन्नो राधा प्रचोदयात्।
. लक्ष्मी गायत्री–ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे  विष्णुप्रियायै धीमहि । तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।
. अग्नि गायत्री–ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि। तन्नो अग्नि: प्रचोदयात्।
. इन्द्र गायत्री–ॐ सहस्त्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि। तन्नो इन्द्र: प्रचोदयात्।
१०. सरस्वती गायत्री–ॐ सरस्वत्यै विद्महे ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्।
११. दुर्गा गायत्री–ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्।
१२. हनुमान गायत्री–ॐ अांजनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि।  तन्नो मारुति: प्रचोदयात्।
१३. पृथ्वी गायत्री–ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्त्रमूत्यै धीमहि। तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात्।
१४. सूर्य गायत्री–ॐ आदित्याय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।
१५. राम गायत्री–ॐ दशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि। तन्नो राम: प्रचोदयात्।
१६. सीता गायत्री–ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै धीमहि। तन्नो सीता प्रचोदयात्।
१७. चन्द्र गायत्री–ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्।
१८. यम गायत्री–ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्।
१९. ब्रह्मा गायत्री–ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारुढ़ाय धीमहि। तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।
२०. वरुण गायत्री–ॐ जलबिम्वाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि। तन्नो वरुण: प्रचोदयात्।
२१. नारायण गायत्री–ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो नारायण: प्रचोदयात्।
२२. हयग्रीव गायत्री–ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि। तन्नो हयग्रीव: प्रचोदयात्।
२३. हंस गायत्री–ॐ परमहंसाय विद्महे महाहंसाय धीमहि। तन्नो हंस: प्रचोदयात्।
२४. तुलसी गायत्री–ॐ श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।
गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है जिससे साधक को आत्मबल प्राप्त होता है और मानसिक कष्ट में तुरन्त शान्ति मिलती है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है।
ध्यान देने योग्य बातें
गायत्री जप में आसन का भी विचार किया जाता है। बांस, पत्थर, लकड़ी, वृक्ष के पत्ते, घास-फूस के आसनों पर बैठकर जप करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वरन् दरिद्रता आती है। गायत्री शक्ति का ध्यान करके करमाला, रुद्राक्ष या तुलसी की माला में जप करना चाहिए। मन में मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। न जीभ हिले, न होंठ।

गायत्री की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए। ब्रह्म की जितनी महिमा है, वह सब गायत्री की भी मानी जाती हैं। वेदमाता गायत्री से यही विनम्र प्रार्थना है कि वे दुर्बुद्धि को मिटाकर सबको सद्बुद्धि प्रदान करें।

कैसे करें समय का सदुपयोग..

मार्गदर्शक चिंतन-

समय मूल्यवान और बहुमूल्य नहीं वह तो अमूल्य है। हमारे पूरे जीवन भर की कमाई भी समय के एक क्षण को नहीं खरीद पायेगी फिर समय का दुरुपयोग किसलिए है व्यस्तता हो अवश्य मगर वह सृजनात्मक, जनात्मक कार्यों में हो, रचनात्मक कार्यों में हो तभी समय का सदुपयोग समझा जायेगा। समय किसी के साथ नहीं चलता। हमें ही इसके साथ चलना पड़ेगा और एक बात समय किसी के लिए रुकता भी नही।
अत:समय अमूल्य है हर क्षण घट रहा है, यह आज है कल नहीं, अभी है फिर नहीं। इसलिए समय के महत्व को विशेष रूप से समझा जाये और अपने जीवन को अच्छे कार्यों में, श्रेष्ठ कार्यों में लगाया जाये। समय का सदुपयोग बुद्धिमत्ता है और समय का दुरुपयोग बहुत बड़ी मूर्खता।

Saturday 25 February 2017

जानिए सूर्यदेव की प्रकट कथा..

सूर्य देव की जन्म कथा 
सूर्य देव हिन्दू धर्म के देवता हैं। सूर्य देव का वर्णन वेदों और पुराणों में भी किया गया है। सूर्य देव का वर्णन एक प्रत्यक्ष देव के रूप में कई जगह किया गया है। भगवान सूर्यदेव को ही जगत की उत्पत्ति तथा अंत का कारण का कारण माना जाता है। शास्त्रों में सूर्य के बारे में विस्तार से बताया गया है।
एक कथा के अनुसार युद्ध में हारे हुए देवताओं की रक्षा के लिए प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति ने सूर्य से उनके पुत्र रूप में जन्म लेने की प्रार्थना की। तब सूर्य देव ने प्रकट होकर अपने एक अंश को उनके गर्भ से जन्म लेने की बात कही। कुछ समय बीत जाने के बाद अदिति के गर्भ से सूर्य देव का जन्म हुआ। उन्होंने दैत्यों से देवताओं की रक्षा की। सूर्य के इस रूप को मार्तण्ड नाम से जाना जाता है।
सूर्य देव के मंत्र 
सूर्य देव का सबसे आसान मंत्र है "ऊं सूर्याय नम: "। इस मंत्र का जाप प्रात: काल सूर्य प्रणाम और सूर्य को जल अर्पित करते समय करना चाहिए। साथ ही इच्छापूर्ति और पुत्र प्राप्ति के लिए जातक को रोज प्रातः उठकर इस मंत्र का जाप करते हुए सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए:
ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्रकिरणराय मनोवांछित फलम् देहि देहि स्वाहा।।
ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजो राशे जगत्पते, अनुकंपयेमां भक्त्या, गृहाणार्घय दिवाकर:
सूर्य देव का स्वरूप 

सूर्य देव का निवास स्थान आदित्य लोक है। इनका वाहन सात घोड़ों वाला रथ है। इनके चार हाथ हैं जिनमें से दो हाथों में इन्होंने पद्म पकड़ा हुआ है तथा दो अन्य हाथ अभय और वरमुद्रा में हैं।

कैसे दुख को सुख में बदलें...

मार्गदर्शक चिंतन-

दुःख में सुख खोज लेना, हानि में लाभ खोज लेना, प्रतिकूलताओं में भी अवसर खोज लेना इस सबको सकारात्मक दृस्टिकोण कहा जाता है। जीवन का ऐसा कोई बड़े से बड़ा दुःख नहीं जिससे सुख की परछाईयों को ना देखा जा सके। जिन्दगी की ऐसी कोई बाधा नहीं जिससे कुछ प्रेरणा ना ली जा सके।
रास्ते में पड़े हुए पत्थर को आप मार्ग की बाधा भी मान सकते हैं और चाहें तो उस पत्थर को सीढ़ी बनाकर ऊपर भी चढ़ सकते है। जीवन का आनन्द वही लोग उठा पाते हैं जिनका सोचने का ढंग सकारात्मक होता है।
इस दुनिया में ज्यादा लोग इसलिए दुखी नहीं कि उन्हें किसी चीज की कमीं है अपितु इसलिए दुखी हैं कि उनके सोचने का ढंग नकारात्मक है। सकारात्मक सोचो, सकारात्मक देखो। इससे आपको अभाव में भी जीने का आनन्द आ जायेगा।

Thursday 23 February 2017

जानिए पूजा में किस सामग्री का क्या है महत्व..

सामग्री का महत्व



आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं।
  • कलश: कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। मान्यतानुसा इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
  • जल: जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
  • नारियल: आरती के समय कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में उपस्थित ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।
  • सोना: ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण धातु अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। इसीलिये सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही कारण है कि इसे भक्तों को भगवान से जोड़ने का माध्यम भी माना जाता है।
  • तांबे की मुद्रा: तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त में सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
  • सप्तनदियों का जलगंगागोदावरीयमुनासिंधुसरस्वतीकावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि अधिकतर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।
  • पान सुपारी: यदि जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं। नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
  • तुलसीआयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।


सब कुछ नहीं है पैसा...

मार्गदर्शक चिंतन..

ज्यादा पैसा, जल्दी पैसा, जितना भी हो पैसा और जीवन ही पैसा की जीवन शैली में अब हम अपना स्वास्थ्य बेचने में लगे हैं। यूँ तो हमने धन का अम्बार लगा दिया मगर स्वास्थ्य को दाव पर लगाकर, और याद रखना वो धन किस काम का जो हमसे जीवन ही छीन ले।
आज का आदमी बड़ी नासमझी में जीवन यापन कर रहा है। आज आदमी पहले पैसा कमाने के लिए सेहत बिगड़ता है फिर सेहत बापिस पाने के लिए पैसे बिगड़ता है। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है। 
स्वास्थ्य रहने पर आप धन अवश्य कमा सकते हैं मगर धन रहते हुए भी स्वास्थ्य नहीं कमाया जा सकता है। धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है उद्देश्य कदापि नहीं। धन साधन है साध्य नहीं। धन अर्जित जरुर किया जाए मगर स्वास्थ्य की वलि देकर नहीं।

Wednesday 22 February 2017

गीता का गुप्त ज्ञान..

मार्गदर्शक चितन-

गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि केवल मूर्ति में मेरा दर्शन करने वाला नहीं अपितु सारे संसार में प्रत्येक जीव के भीतर और कण-कण में मेरा दर्शन करने वाला ही मेरा भक्त है। प्रत्येक वस्तु परमात्मा की है, अपनी मानते ही वह अशुद्ध हो जाती है। तुम भी परमात्मा के ही हो, परमात्मा से अलग अपना अस्तित्व स्वीकार करते ही तुम भी अशुद्ध हो जाते हो। 
प्रकृति में परमात्मा नहीं, अपितु ये प्रकृति ही परमात्मा है। जगत और जगदीश अलग-अलग नहीं, एक ही तत्व हैं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है वह जगत है और जगत का हो हिस्सा अदृश्य रह गया वह जगदीश है। 
संसार से दूर भागकर कभी भी परमात्मा को नहीं पाया जा सकता है। संसार को समझकर ही भगवान् को पाया जा सकता है। जगत में कहीं दुःख, अशांति, भय नहीं है। यह सब तो तुम्हें अपने मनमाने आचरण, असंयमता और विवेक के अभाव के कारण प्राप्त हो रहा है।

Tuesday 21 February 2017

जानिए किसने दिया भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र..

सुदर्शन चक्र भगवान् का नित्य अस्त्र हे —



सुदर्शन—यह सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र है, यहाँ तक कि ब्रह्मास्त्र या अन्य विध्वंसक अस्त्रों से भी यह श्रेष्ठ है और इस चक्र को भगवान् ने (विष्णु या कृष्ण ने) अपने अस्त्र के रूप में स्वीकार किया था। किन्हीं-किन्हीं वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि अग्निदेव ने यह अस्त्र श्रीकृष्ण को प्रदान किया था, लेकिन सच्चाई तो यह है कि भगवान् इस अस्त्र को निरन्तर धारण किये रहते हैं। अग्निदेव ने यह अस्त्र श्रीकृष्ण को उसी प्रकार अर्पित किया, जिस प्रकार महाराज रुक्म ने उन्हें अपनी पुत्री रुक्मिणी प्रदान की थी। भगवान् अपने भक्तों की ऐसी भेंटें स्वीकार करते रहते हैं, यद्यपि ये उन्हीं की नित्य सम्पत्ति हैं। महाभारत के आदिपर्व में इस सुदर्शन अस्त्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। भगवान् कृष्ण ने इसका उपयोग अपने प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल के वध के लिये किया। उन्होंने इसी के द्वारा शाल्व का भी वध किया और कभी कभी उन्होंने चाहा था कि अर्जुन अपने शत्रुओं का संहार करने के लिये इस चक्र का प्रयोग करे (महाभारत, विराट पर्व ५६.)