Monday 28 August 2017

एक बेटे का अपने पिता को मार्गदर्शन..

मार्गदर्शक चिंतन-

श्रीमद भागवत जी में पिता आत्मदेव को उपदेश देते हुए गोकर्ण जी कहते हैं कि पिताजी दो प्रकार से ही सुखी हुआ जा सकता है। प्रथम तो विरक्त, यानि अपेक्षा रहित होकर, दूसरा मुनि बनकर। मुनेरेकान्त जीविनः।
मुनि का अर्थ घर-द्वार छोड़कर कहीं जंगल में जाकर बस जाना नहीं है। मुनि का अर्थ है मन का अनुमोदन कर लेना। अपने मन को साध लेना, मन को वश में कर लेना। मन ही जीव को नाना प्रकार के पापों और प्रपंचों में फ़साने वाला है।
इस मन को कितना भी प्राप्त हो जाए तो भी यह संतुष्ट नहीं होता। यह प्राप्त का स्मरण तो नहीं कराता अपितु जो प्राप्त नहीं है उस अभाव का बार- बार स्मरण कराता रहता है। इसलिए आवश्यक है कि सत्संग और महापुरुषों के आश्रय से तथा विवेक से इस मन की चंचलता पर अंकुश लगाया जाए।

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